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Khalilur Rahman Azmi's Photo'

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

1927 - 1978 | अलीगढ़, भारत

आधुनिक उर्दू आलोचना के संस्थापको में अग्रणी।

आधुनिक उर्दू आलोचना के संस्थापको में अग्रणी।

ख़लील-उर-रहमान आज़मी के शेर

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यूँ तो मरने के लिए ज़हर सभी पीते हैं

ज़िंदगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैं ने

जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही

जिसे क़रीब से देखा वो दूसरा निकला

भला हुआ कि कोई और मिल गया तुम सा

वगर्ना हम भी किसी दिन तुम्हें भुला देते

जाने क्यूँ इक ख़याल सा आया

मैं हूँगा तो क्या कमी होगी

निकाले गए इस के मअ'नी हज़ार

अजब चीज़ थी इक मिरी ख़ामुशी

तिरी वफ़ा में मिली आरज़ू-ए-मौत मुझे

जो मौत मिल गई होती तो कोई बात भी थी

मिरी नज़र में वही मोहनी सी मूरत है

ये रात हिज्र की है फिर भी ख़ूब-सूरत है

हम ने तो ख़ुद को भी मिटा डाला

तुम ने तो सिर्फ़ बेवफ़ाई की

सुना रहा हूँ उन्हें झूट-मूट इक क़िस्सा

कि एक शख़्स मोहब्बत में कामयाब रहा

देखने वाला कोई मिले तो दिल के दाग़ दिखाऊँ

ये नगरी अँधों की नगरी किस को क्या समझाऊँ

हज़ार तरह की मय पी हज़ार तरह के ज़हर

प्यास ही बुझी अपनी हौसला निकला

कोई वक़्त बतला कि तुझ से मिलूँ

मिरी दौड़ती भागती ज़िंदगी

यूँ जी बहल गया है तिरी याद से मगर

तेरा ख़याल तेरे बराबर हो सका

होती नहीं है यूँही अदा ये नमाज़-ए-इश्क़

याँ शर्त है कि अपने लहू से वज़ू करो

ये तमन्ना नहीं अब दाद-ए-हुनर दे कोई

के मुझ को मिरे होने की ख़बर दे कोई

तुम मुझे चाहो चाहो लेकिन इतना तो करो

झूट ही कह दो कि जीने का बहाना मिल सके

मेरे दुश्मन मुझ को भूल सके

वर्ना रखता है कौन किस को याद

हाए वो लोग जिन के आने का

हश्र तक इंतिज़ार होता है

अब उन बीते दिनों को सोच कर तो ऐसा लगता है

कि ख़ुद अपनी मोहब्बत जैसे इक झूटी कहानी हो

दुनिया-दारी तो क्या आती दामन सीना सीख लिया

मरने के थे लाख बहाने फिर भी जीना सीख लिया

आरिज़ पे तेरे मेरी मोहब्बत की सुर्ख़ियाँ

मेरी जबीं पे तेरी वफ़ा का ग़ुरूर है

नहीं अब कोई ख़्वाब ऐसा तिरी सूरत जो दिखलाए

बिछड़ कर तुझ से किस मंज़िल पर हम तन्हा चले आए

हंगामा-ए-हयात से जाँ-बर हो सका

ये दिल अजीब दिल है कि पत्थर हो सका

हमें तो रास आई किसी की महफ़िल भी

कोई ख़ुदा कोई हम-साया-ए-ख़ुदा निकला

तमाम यादें महक रही हैं हर एक ग़ुंचा खिला हुआ है

ज़माना बीता मगर गुमाँ है कि आज ही वो जुदा हुआ है

हम ने ख़ुद अपने-आप ज़माने की सैर की

हम ने क़ुबूल की किसी रहनुमा की शर्त

अज़ल से था वो हमारे वजूद का हिस्सा

वो एक शख़्स कि जो हम पे मेहरबान हुआ

तेरे हो सके तो किसी के हो सके

ये कारोबार-ए-शौक़ मुकर्रर हो सका

हम सा मिले कोई तो कहें उस से हाल-ए-दिल

हम बन गए ज़माने में क्यूँ अपनी ही मिसाल

कोई तो बात होगी कि करने पड़े हमें

अपने ही ख़्वाब अपने ही क़दमों से पाएमाल

यहीं पर दफ़्न कर दो इस गली से अब कहाँ जाऊँ

कि मेरे पास जो कुछ था यहीं कर लुटाया है

तिरी सदा का है सदियों से इंतिज़ार मुझे

मिरे लहू के समुंदर ज़रा पुकार मुझे

ये सच है आज भी है मुझे ज़िंदगी अज़ीज़

लेकिन जो तुम मिलो तो ये सौदा गिराँ नहीं

ये और बात कि तर्क-ए-वफ़ा पे माइल हैं

तिरी वफ़ा की हमें आज भी ज़रूरत है

मैं कहाँ हूँ कुछ बता दे ज़िंदगी ज़िंदगी!

फिर सदा अपनी सुना दे ज़िंदगी ज़िंदगी!

मैं अपने घर को बुलंदी पे चढ़ के क्या देखूँ

उरूज-ए-फ़न मिरी दहलीज़ पर उतार मुझे

और तो कोई बताता नहीं उस शहर का हाल

इश्तिहारात ही दीवार के पढ़ कर देखें

चाहो तुम तो हर इक गाम कितनी दीवारें

जो चाहो तुम तो मिलन की हज़ार सूरत है

'मीर' का तर्ज़ अपनाया सब ने लेकिन ये अंदाज़ कहाँ

'आज़मी'-साहिब आप की ग़ज़लें सुन सुन कर सब हैराँ हैं

दुनिया भर की राम-कहानी किस किस ढंग से कह डाली

अपनी कहने जब बैठे तो एक एक लफ़्ज़ पिघलता था

हमारे ब'अद उस मर्ग-ए-जवाँ को कौन समझेगा

इरादा है कि अपना मर्सिया भी आप ही लिख लें

ज़हर पी कर भी यहाँ किस को मिली ग़म से नजात

ख़त्म होता है कहीं सिलसिला-ए-रक़्स-ए-हयात

हम पे जो गुज़री है बस उस को रक़म करते हैं

आप-बीती कहो या मर्सिया-ख़्वानी कह लो

क्यूँ हर घड़ी ज़बाँ पे हो जुर्म-ओ-सज़ा का ज़िक्र

क्यूँ हर अमल की फ़िक्र में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा की शर्त

लाख सादा सही तेरी ये जबीं की तहरीर

इस से अक्सर मिरे अफ़्कार को मिलती है ज़बाँ

आज डूबा हुआ ख़ुशबू में है पैराहन-ए-जाँ

सबा किस ने ये पूछा है तिरा नाम-ओ-निशाँ

तेरी गली से छुट के जा-ए-अमाँ मिली

अब के तो मेरा घर भी मिरा घर हो सका

हाए उस दस्त-ए-करम ही से मिले जौर-ओ-जफ़ा

मुझ को आग़ाज़-ए-मोहब्बत ही में मर जाना था

ज़िंदगी भी मिरे नालों की शनासा निकली

दिल जो टूटा तो मिरे घर में कोई शम्अ जली

निगाह-ए-मेहरबाँ उठती तो है सब की तरफ़ लेकिन

नहीं वाक़िफ़ अभी सब लोग रम्ज़-ए-आश्नाई से

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