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Mohammad Alvi's Photo'

मोहम्मद अल्वी

1927 - 2018 | अहमदाबाद, भारत

प्रमुखतम आधुनिक शायरों में विख्यात/साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

प्रमुखतम आधुनिक शायरों में विख्यात/साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

मोहम्मद अल्वी के शेर

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ढूँडने में भी मज़ा आता है

कोई शय रख के भुला दी जाए

हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका कर

मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख

धूप ने गुज़ारिश की

एक बूँद बारिश की

कमरे में मज़े की रौशनी हो

अच्छी सी कोई किताब देखूँ

मौत भी दूर बहुत दूर कहीं फिरती है

कौन अब के असीरों को रिहाई देगा

गाड़ी आती है लेकिन आती ही नहीं

रेल की पटरी देख के थक जाता हूँ मैं

नज़रों से नापता है समुंदर की वुसअतें

साहिल पे इक शख़्स अकेला खड़ा हुआ

ऐसा हंगामा था जंगल में

शहर में आए तो डर लगता था

अभी दो चार ही बूँदें गिरीं हैं

मगर मौसम नशीला हो गया है

अब 'ग़ालिब' से शिकायत है शिकवा 'मीर' का

बन गया मैं भी निशाना रेख़्ता के तीर का

पर तोल के बैठी है मगर उड़ती नहीं है

तस्वीर से चिड़िया को उड़ा देना चाहिए

गवाही देता वही मेरी बे-गुनाही की

वो मर गया तो उसे अब कहाँ से लाऊँ मैं

सामने दीवार पर कुछ दाग़ थे

ग़ौर से देखा तो चेहरे हो गए

दिन भर बच्चों ने मिल कर पत्थर फेंके फल तोड़े

साँझ हुई तो पंछी मिल कर रोने लगे दरख़्तों पर

कहाँ भटकते फिरोगे 'अल्वी'

सड़क से पूछो किधर गई है

सर्दी में दिन सर्द मिला

हर मौसम बेदर्द मिला

बहुत ख़ुश हुए आईना देख कर

यहाँ कोई सानी हमारा था

अरे ये दिल और इतना ख़ाली

कोई मुसीबत ही पाल रखिए

आसमान पर जा पहुँचूँ

अल्लाह तेरा नाम लिखूँ

हैरान मत हो तैरती मछली को देख कर

पानी में रौशनी को उतरते हुए भी देख

रात पड़े घर जाना है

सुब्ह तलक मर जाना है

ऑफ़िस में भी घर को खुला पाता हूँ मैं

टेबल पर सर रख कर सो जाता हूँ मैं

मरने के डर से और कहाँ तक जियेगा तू

जीने के दिन तमाम हुए इंतिक़ाल कर

रात मिली तन्हाई मिली और जाम मिला

घर से निकले तो क्या क्या आराम मिला

'अल्वी' ने आज दिन में कहानी सुनाई थी

शायद इसी वजह से मैं रस्ता भटक गया

बुला रहा था कोई चीख़ चीख़ कर मुझ को

कुएँ में झाँक के देखा तो मैं ही अंदर था

देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था

ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर

मुँह-ज़बानी क़ुरआन पढ़ते थे

पहले बच्चे भी कितने बूढ़े थे

'अल्वी' ख़्वाहिश भी थी बाँझ

जज़्बा भी ना-मर्द मिला

छोड़ गया मुझ को 'अल्वी'

शायद वो जल्दी में था

'अल्वी' ये मो'जिज़ा है दिसम्बर की धूप का

सारे मकान शहर के धोए हुए से हैं

ग़म बहुत दिन मुफ़्त की खाता रहा

अब उसे दिल से निकाला चाहिए

कुछ तो इस दिल को सज़ा दी जाए

उस की तस्वीर हटा दी जाए

रात कौन आया था

कर गया सहर रौशन

उतार फेंकूँ बदन से फटी पुरानी क़मीस

बदन क़मीस से बढ़ कर कटा-फटा देखूँ

सुब्ह से खोद रहा हूँ घर को

ख़्वाब देखा है ख़ज़ाने वाला

मुतमइन है वो बना कर दुनिया

कौन होता हूँ मैं ढाने वाला

मैं नाहक़ दिन काट रहा हूँ

कौन यहाँ सौ साल जिया है

रखते हो अगर आँख तो बाहर से देखो

देखो मुझे अंदर से बहुत टूट चुका हूँ

अच्छे दिन कब आएँगे

क्या यूँ ही मर जाएँगे

कितना मुश्किल है ज़िंदगी करना

और सोचो तो कितना आसाँ है

और बाज़ार से क्या ले जाऊँ

पहली बारिश का मज़ा ले जाऊँ

घर में क्या आया कि मुझ को

दीवारों ने घेर लिया है

बिछड़ते वक़्त ऐसा भी हुआ है

किसी की सिसकियाँ अच्छी लगी हैं

माना कि तू ज़हीन भी है ख़ूब-रू भी है

तुझ सा मैं हुआ तो भला क्या बुरा हुआ

काँटे की तरह सूख के रह जाओगे 'अल्वी'

छोड़ो ये ग़ज़ल-गोई ये बीमारी बुरी है

थोड़ी सर्दी ज़रा सा नज़ला है

शायरी का मिज़ाज पतला है

बिखेर दे मुझे चारों तरफ़ ख़लाओं में

कुछ इस तरह से अलग कर कि जुड़ पाऊँ मैं

क्यूँ सर खपा रहे हो मज़ामीं की खोज में

कर लो जदीद शायरी लफ़्ज़ों को जोड़ कर

तुड़ा-मुड़ा है मगर ख़ुदा है

इसे तो साहब सँभाल रखिए

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