साक़ी फ़ारुक़ी के शेर
मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा
ये हादसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा
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मुद्दत हुई इक शख़्स ने दिल तोड़ दिया था
इस वास्ते अपनों से मोहब्बत नहीं करते
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ये क्या तिलिस्म है क्यूँ रात भर सिसकता हूँ
वो कौन है जो दियों में जला रहा है मुझे
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इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते
ये बात किसी और से कह भी नहीं सकते
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अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएँगे इक दिन
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मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली
तुझ से बिछड़ के ज़िंदगी दुनिया से जा मिली
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मुझ में सात समुंदर शोर मचाते हैं
एक ख़याल ने दहशत फैला रक्खी है
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ख़ुदा के वास्ते मौक़ा न दे शिकायत का
कि दोस्ती की तरह दुश्मनी निभाया कर
वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है
मिरी यादों में इक भूला हुआ चेहरा भी रहता है
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टैग : याद
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मैं ने चाहा था कि अश्कों का तमाशा देखूँ
और आँखों का ख़ज़ाना था कि ख़ाली निकला
तमाम जिस्म की उर्यानियाँ थीं आँखों में
वो मेरी रूह में उतरा हिजाब पहने हुए
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प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर
भागती जाती हैं लहरें ये तमाशा देख कर
नामों का इक हुजूम सही मेरे आस-पास
दिल सुन के एक नाम धड़कता ज़रूर है
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रास्ता दे कि मोहब्बत में बदन शामिल है
मैं फ़क़त रूह नहीं हूँ मुझे हल्का न समझ
मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला
साक़ी मिरे मिज़ाज का मौसम नहीं मिला
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वो मिरी रूह की उलझन का सबब जानता है
जिस्म की प्यास बुझाने पे भी राज़ी निकला
व्याख्या
इस शे’र का विषय “रूह की उलझन” पर स्थित है। आत्मा की शरीर से अनुरूपता ख़ूब है। शायर का यह कहना है कि वो अर्थात उसका प्रिय उसकी आत्मा की उलझन का कारण जानता है। यानी मेरी आत्मा किस उलझन में है उसे अच्छी तरह मालूम है। मैं ये सोचता था कि वो सिर्फ़ मेरी आत्मा की उलझन को दूर करेगा मगर वो तो मेरे शरीर की प्यास बुझाने के लिए भी राज़ी होगया। दूसरे मिसरे में शब्द “भी” बहुत अर्थपूर्ण है। इससे स्पष्ट होता है कि शायर का प्रिय हालांकि यह जानता है कि वो आत्मा की उलझन में ग्रस्त है और आत्मा और शरीर के बीच एक तरह का अंतर्विरोध है। जिसका यह अर्थ है कि मेरे प्रिय को मालूम था कि मेरी आत्मा के भ्रम की वजह वास्तव में शरीर की प्यास ही है मगर प्रिय आत्मा की जगह उसके शरीर की प्यास बुझाने के लिए तैयार हो गया।
शफ़क़ सुपुरी
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मैं उन से भी मिला करता हूँ जिन से दिल नहीं मिलता
मगर ख़ुद से बिछड़ जाने का अंदेशा भी रहता है
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मैं अपने शहर से मायूस हो के लौट आया
पुराने सोग बसे थे नए मकानों में
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तुझ से मिलने का रास्ता बस एक
और बिछड़ने के रास्ते हैं बहुत
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तुम और किसी के हो तो हम और किसी के
और दोनों ही क़िस्मत की शिकायत नहीं करते
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लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं
वक़्त अकेला इसी सबब से है
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दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल
ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी
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बुझे लबों पे है बोसों की राख बिखरी हुई
मैं इस बहार में ये राख भी उड़ा दूँगा
जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़
वापस हुए तो उस की मोहब्बत ख़फ़ा मिली
एक एक कर के लोग बिछड़ते चले गए
ये क्या हुआ कि वक़्फ़ा-ए-मातम नहीं मिला
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क़त्ल करने का इरादा है मगर सोचता हूँ
तू अगर आए तो हाथों में झिजक पैदा हो
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मुझे समझने की कोशिश न की मोहब्बत ने
ये और बात ज़रा पेचदार मैं भी था
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सुब्ह तक रात की ज़ंजीर पिघल जाएगी
लोग पागल हैं सितारों से उलझना कैसा
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ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना
टूटता जाता है आवाज़ से रिश्ता अपना
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मुझे गुनाह में अपना सुराग़ मिलता है
वगरना पारसा-ओ-दीन-दार मैं भी था
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आग हो दिल में तो आँखों में धनक पैदा हो
रूह में रौशनी लहजे में चमक पैदा हो
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वो ख़ुदा है तो मिरी रूह में इक़रार करे
क्यूँ परेशान करे दूर का बसने वाला
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टैग : ख़ुदा
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रूह में रेंगती रहती है गुनह की ख़्वाहिश
इस अमरबेल को इक दिन कोई दीवार मिले
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मैं अपनी आँखों से अपना ज़वाल देखता हूँ
मैं बेवफ़ा हूँ मगर बे-ख़बर न जान मुझे
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ख़ाक मैं उस की जुदाई में परेशान फिरूँ
जब कि ये मिलना बिछड़ना मिरी मर्ज़ी निकला
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दिल ही अय्यार है बे-वज्ह धड़क उठता है
वर्ना अफ़्सुर्दा हवाओं में बुलावा कैसा
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वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है
दिवाली देख ली हम ने दसहरे कर लिए हम ने
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हम तंगना-ए-हिज्र से बाहर नहीं गए
तुझ से बिछड़ के ज़िंदा रहे मर नहीं गए
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अजब कि सब्र की मीआद बढ़ती जाती है
ये कौन लोग हैं फ़रियाद क्यूँ नहीं करते
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मेरी अय्यार निगाहों से वफ़ा माँगता है
वो भी मोहताज मिला वो भी सवाली निकला
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मेरे अंदर उसे खोने की तमन्ना क्यूँ है
जिस के मिलने से मिरी ज़ात को इज़हार मिले
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डूब जाने का सलीक़ा नहीं आया वर्ना
दिल में गिर्दाब थे लहरों की नज़र में हम थे
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मेरी आँखों में अनोखे जुर्म की तज्वीज़ थी
सिर्फ़ देखा था उसे उस का बदन मैला हुआ
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उस के वारिस नज़र नहीं आए
शायद उस लाश के पते हैं बहुत
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हादसा ये है कि हम जाँ न मोअत्तर कर पाए
वो तो ख़ुश-बू था उसे यूँ भी बिखर जाना था
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मैं तो ख़ुदा के साथ वफ़ादार भी रहा
ये ज़ात का तिलिस्म मगर टूटता नहीं
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अभी नज़र में ठहर ध्यान से उतर के न जा
इस एक आन में सब कुछ तबाह कर के न जा
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मिट जाएगा सेहर तुम्हारी आँखों का
अपने पास बुला लेगी दुनिया इक दिन
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मिरा अकेला ख़ुदा याद आ रहा है मुझे
ये सोचता हुआ गिरजा बुला रहा है मुझे
नए चराग़ जला याद के ख़राबे में
वतन में रात सही रौशनी मनाया कर
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