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Zeb Ghauri's Photo'

ज़ेब ग़ौरी

1928 - 1985 | कानपुर, भारत

भारत में अग्रणी आधुनिक शायरों में विख्यात।

भारत में अग्रणी आधुनिक शायरों में विख्यात।

ज़ेब ग़ौरी के शेर

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शेर तो मुझ से तेरी आँखें कहला लेती हैं

चुप रहता हूँ मैं जब तक तहरीक नहीं होती

शायद अब भी कोई शरर बाक़ी हो 'ज़ेब'

दिल की राख से आँच आती है कम कम सी

थक गया एक कहानी सुनते सुनते मैं

क्या इस का अंजाम नहीं होता कोई

मैं ने देखा था सहारे के लिए चारों तरफ़

कि मिरे पास ही इक हाथ भँवर से निकला

किस ने सहरा में मिरे वास्ते रक्खी है ये छाँव

धूप रोके है मिरा चाहने वाला कैसा

मैं लाख इसे ताज़ा रखूँ दिल के लहू से

लेकिन तिरी तस्वीर ख़याली ही रहेगी

चमक रहा है ख़ेमा-ए-रौशन दूर सितारे सा

दिल की कश्ती तैर रही है खुले समुंदर में

कम रौशन इक ख़्वाब आईना इक पीला मुरझाया फूल

पस-मंज़र के सन्नाटे में एक नदी पथरीली सी

फिर एक नक़्श का नैरंग 'ज़ेब' बिखरेगा

मिरे ग़ुबार को फिर उस ने पेच-ओ-ताब दिया

धो के तू मेरा लहू अपने हुनर को छुपा

कि ये सुर्ख़ी तिरी शमशीर का जौहर ही तो है

सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के

देखा है मुझ को खिड़की से फिर सर निकाल के

छेड़ कर जैसे गुज़र जाती है दोशीज़ा हवा

देर से ख़ामोश है गहरा समुंदर और मैं

'ज़ेब' अब ज़द में जो जाए वो दिल हो कि निगाह

उस की रफ़्तार है चलते हुए जादू की तरह

ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल तुझ को कौन सँभालेगा

मेरे बचपन के साथी मेरे साथ ही मर जाना

'ज़ेब' मुझे डर लगने लगा है अपने ख़्वाबों से

जागते जागते दर्द रहा करता है मिरे सर में

उड़ा के ख़ाक बहुत मैं ने देख ली 'ज़ेब'

वहाँ तलक तो कोई रास्ता नहीं जाता

देख कभी कर ये ला-महदूद फ़ज़ा

तू भी मेरी तन्हाई में शामिल हो

महकती ज़ुल्फ़ों से ख़ोशे गुलों के छूट गिरे

कुछ और जैसे कि गुंजाइश-ए-बहार थी

मिरी जगह कोई आईना रख लिया होता

जाने तेरे तमाशे में मेरा काम है क्या

ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला

मैं भी धोका खा कर कुछ चालाक हुआ

जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है

जब सब लोग चले जाएँ तो बातें करता है

घसीटते हुए ख़ुद को फिरोगे 'ज़ेब' कहाँ

चलो कि ख़ाक को दे आएँ ये बदन उस का

आगे चल के तो कड़े कोस हैं तन्हाई के

और कुछ दूर तलक लुत्फ़-ए-सफ़र है ये भी

दिल को सँभाले हँसता बोलता रहता हूँ लेकिन

सच पूछो तो 'ज़ेब' तबीअत ठीक नहीं होती

बड़े अज़ाब में हूँ मुझ को जान भी है अज़ीज़

सितम को देख के चुप भी रहा नहीं जाता

मैं पयम्बर तिरा नहीं लेकिन

मुझ से भी बात कर ख़ुदा मेरे

ये कम है क्या कि मिरे पास बैठा रहता है

वो जब तलक मिरे दिल को दुखा नहीं जाता

कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार

फिर रात अपने साथ बहा ले गई मुझे

ये डूबती हुई क्या शय है तेरी आँखों में

तिरे लबों पे जो रौशन है उस का नाम है क्या

मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया

थके बदन को मिरे पत्थरों में दाब दिया

अधूरी छोड़ के तस्वीर मर गया वो 'ज़ेब'

कोई भी रंग मयस्सर था लहू के सिवा

लहू में तैरता फिरता है मेरा ख़स्ता बदन

मैं डूब जाऊँ तो ज़ख़्मों को देखे-भाले कौन

कहीं पता लगा फिर वजूद का मेरे

उठा के ले गई दुनिया शिकार किस का था

उलट रही थीं हवाएँ वरक़ वरक़ उस का

लिखी गई थी जो मिट्टी पे वो किताब था वो

तेरे सामने आते हुए घबराता हूँ

लब पे तिरा इक़रार है दिल में चोर बहुत

ख़ाकिस्तर-ए-जाँ को मिरी महकाए था लेकिन

जूही का वो पौधा मिरे आँगन में नहीं था

एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती

दिल के बुझने से दुनिया तारीक नहीं होती

जितना देखो उसे थकती नहीं आँखें वर्ना

ख़त्म हो जाता है हर हुस्न कहानी की तरह

जगमगाता हुआ ख़ंजर मिरे सीने में उतार

रौशनी ले के कभी ख़ाना-ए-वीरान में

तूफ़ाँ में नाव आई तो क्या सम्त क्या निशाँ

कुछ देर में रहा हवा का शुमार भी

बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है

मैं भी चुप था कि चलो सीने में ख़ंजर ही तो है

धुंद है और सुरमई कोहसार की चोटी है 'ज़ेब'

ज़र्द शहपर धूप उड़ने के लिए तय्यार है

उस की राहों में पड़ा मैं भी हूँ कब से लेकिन

भूल जाता हूँ उसे याद दिलाने के लिए

मैं ने बेताबाना बढ़ कर दश्त में आवाज़ दी

जब ग़ुबार उट्ठा किसी दीवाने का धोका हुआ

संग-ए-बेहिस से उठी मौज-ए-सियह-ताब कोई

सरसराता हुआ इक साँप खंडर से निकला

'ज़ेब' सवाल अब ये है तुझे पहचाने कौन

किस की नज़र इस गहराई की हामिल हो

मुझ से बिछड़ कर होगा समुंदर भी बेचैन

रात ढले तो करता होगा शोर बहुत

टूटती रहती है कच्चे धागे सी नींद

आँखों को ठंडक ख़्वाबों को गिरानी दे

एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'

और फिर मैं ग़ुबार भी रहा

वो मेरे सामने ख़ंजर-ब-कफ़ खड़ा था 'ज़ेब'

मैं देखता रहा उस को कि बे-नक़ाब था वो

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