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वो कौन थी?

मिर्ज़ा अदीब

वो कौन थी?

मिर्ज़ा अदीब

MORE BYमिर्ज़ा अदीब

    स्टोरीलाइन

    एक बहुत ही मज़हबी शख़्स और उसके ख़ानदान की कहानी है। उस शख़्स के दो घर हैं, एक में वह अपनी फ़ैमिली के साथ रहता है और दूसरा मकान ख़ाली पड़ा हुआ है। अपने ख़ाली मकान को किसी शरीफ़ और नेक शख़्स को किराए पर देना चाहता है। फिर एक दिन उस घर में एक औरत आकर रहने लगती है और वह शख़्स उसके पास जाने लगता है। इस बारे में जब उसकी बीवी और घर के लोगों को पता चलता है तो कहानी एक नया मोड़ लेती है और वो मज़हबी और दीनदार शख़्स अपने घर वालों की निगाहों में क़ाबिल-ए-नफ़रीन बन जाता है।

    जिस ज़माने का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ, उस वक़्त मेरी उम्र नौ-दस साल से ज़्यादा नहीं थी।

    आज कूचे... के आख़िरी गोशे में एक शानदार हवेली नज़र रही है। मगर उस ज़माने में उस जगह एक-दो मंज़िला मकान खड़ा था जो अब्बा जी ही की मिल्कियत में था और हमारे मकान के बिल्कुल क़रीब था।

    ये मकान उमूमन ख़ाली पड़ा रहता था। क्योंकि अब्बा जी का क़ौल था, अगर नेक सीरत और ख़ुश-अख़लाक़ किराएदार नहीं मिल सकता तो मकान ख़ाली ही रखना चाहिए। वो उस उसूल को किसी हालत में भी नज़र-अंदाज करने के लिए तैयार नहीं थे। चुनाँचे वो हर उस शख़्स के अख़लाक़ का सख़्ती से जाइज़ा लेते थे जो मकान को किराए पर लेने की ख़्वाहिश ज़ाहिर करता था और आम तौर पर कोई शख़्स भी अब्बा जी के अख़्लाक़ी मे’यार पर पूरा नहीं उतरता था।

    एक मर्तबा साईं महताब यहाँ आकर रहने लगे थे। साईं साहब अब्बा जी के गहरे दोस्त थे और हम सबको तवक़्क़ो थी कि चूँकि अब्बा जी उनके अख़लाक़ और आदात पर मुत्मइन हैं। इसलिए उन्हें कभी भी निकालने की कोशिश नहीं करेंगे। मगर हमारी ये राय सही साबित हो सकी। अब्बा जी साईं साहब को तो फ़रिश्ता समझते थे। लेकिन इसका क्या इलाज कि उस फ़रिश्ता-सीरत इंसान का बेटा शैतान बन गया था।

    अब्बा जी को मालूम हो गया था कि जलाल... साईं जी का बेटा एक-दो मर्तबा रंडी के यहाँ गया है। बस फिर क्या था, दूसरे दिन साईं साहब को जवाब मिल गया।

    मुझे अच्छी तरह याद है कि उस दिन अब्बा जी ने मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के बाद कहा था...एक गंदी मछली सारे जल को ख़राब कर देती है। आज वो तन्हा रंडी के घर गया है, कल अपने किसी मुहल्ले के दोस्त को भी साथ ले जाएगा। हमें किराएदार की ज़रूरत नहीं। महीने में दस-बारह रूपये नहीं मिलेंगे तो क्या होगा।

    ये अल्फ़ाज़ सुन कर तमाम नमाज़ियों की आँखें चमकने लगी थीं और वो एक-दूसरे को ख़ास अंदाज़ से देखने लगे थे और जब इमाम साहब ने अब्बा जी को मुख़ातिब करते कहा था, शैख़ जी! जब तक आप मुहल्ले में मौजूद हैं, कोई शख़्स भी बदकारी की जुरअत नहीं कर सकता! तो मेरी हर रग, हर रेशे में एक शदीद जज़्बा-ए-ग़ुरूर सरायत कर गया था और मैंने क़सम खाकर दिल में अहद कर लिया था कि ज़िंदगी में कभी भी अब्बा जी के साथ गुस्ताख़ी से पेश नहीं आऊँगा और उनकी हुक्म-उदूली करूँगा।

    उस मकान की मशरिक़ी दीवार सुर्ख़ थी। इसलिए हमलोग उसे लाल मकान ही कहा करते थे।

    लाल मकान ख़ाली पड़ा था और मैं दिल-ओ-जान से आरज़ू-मंद था कि ये हमेशा ख़ाली ही पड़ा रहे। बात ये थी कि... स्कूल से आकर अपने दोस्तों के साथ वहाँ चला जाता था और शाम तक वहीं खेलता रहता था।

    एक दिन जब मैं स्कूल से वापस आया तो अम्मी और दादी अम्माँ दोनों को ख़िलाफ़-ए-मामूल आहिस्ता-आहिस्ता कोठड़ी में बातें करते हुए देखा। मैं झट कोठड़ी में चला गया। वहाँ दादी अम्माँ मालूम किसको बाज़ारी गालियाँ दे रही थीं और अम्मी बार-बार अपनी सुर्ख़ आँखों को दुपट्टे से इस तरह पोंछ रही थीं गोया उनमें तिनके पड़ गए हों और वो दर्द से बेताब हों।

    दूसरे कमरे में आपा ने आवाज़ दी। मैं कमरे से बाहर निकल आया। आपा ने मेरे सामने खाना रख दिया। मैंने पूछा,

    आपा! अम्मी रो रही हैं, क्यों?

    आपा ने इसके जवाब में हूँ कहा और चली गईं। गोया अम्मी के रोने का वाक़िआ उनकी निगाहों में कोई अहमियत ही नहीं रखता था।

    खाना खाने के बाद मैं मौजूदा वाक़िए पर ख़्याल-आराई करता हुआ लाल मकान की तरफ़ जाने लगा। उस वक़्त मेरे नन्हे दिमाग़ में तरह-तरह के ख़्यालात का हुजूम बेक़रार था और मैं दिल में कह रहा था। आज ज़रूर अब्बा जी ने अम्मी को पीटा है। मगर नहीं, अब्बा जी कभी भी अम्मी से नहीं लड़े। फिर क्या बात है।

    इन्ही ख़्यालात में मह्व मैं लाल मकान की सीढ़ियाँ तै करके दरवाज़े पर पहुँच गया। दरवाज़ा बंद था।

    मैंने ख़्याल किया। फ़िरोज़ मुझसे पहले पहुँच गया है और उसने शरारत से दरवाज़ा बन्द कर दिया है। मैंने दरवाज़े को दो-तीन बार ज़ोर-ज़ोर से खटखटाया और साथ ही फ़िरोज़ को गालियाँ भी सुनाईं। लेकिन वहाँ फ़िरोज़ के बजाय एक औरत खड़ी थी।

    मैं कुछ शर्मिंदा सा हो गया। ये औरत मेरे मुतअल्लिक़ क्या राय क़ायम करेगी। इतने नेक बाप का गालियाँ बकने वाला बेहूदा बेटा। मैंने चाहा कि फ़ौरन चला जाऊँ। ये इरादा ही किया था कि वो बड़े प्यार से बोली,

    फ़िरोज़ को गालियाँ दे रहे थे, कौन है फ़िरोज़?

    मेरा दोस्त है, आप कौन हैं...? किराएदार?

    हा.. आँ! ये कहकर वो पलंग पर बैठ गई और छालियाँ कतरने लगी।

    पान खाओगे?

    मैं ख़ामोश रहा। वो पान बनाने लगी और फिर मुस्कुरा कर कहने लगी,

    तुम शैख़ साहब के लड़के हो ना, तुम्हारा नाम क्या है?

    मैंने अपना नाम बताया और पान लेकर भाग आया। उस औरत की बातों ने मुझे इतना मुतास्सिर किया था कि मैं चाहता था फ़ौरन अब्बा-अम्मी, दादी, आपा, सबको बता दूँ कि लाल मकान में एक औरत गई है। अगरचे मैं ये जानता था कि उन्हें ये बात ज़रूर मालूम होगी।

    मैंने सबसे पहले दादी अम्माँ से कहा, दादी अम्माँ! लाल मकान में एक बड़ी अच्छी औरत गई है... बड़ी अच्छी दादी जान! उसने मुझे पान दिया है, देखो तो...

    पान खाकर आए हो उस हरामज़ादी के हाथ से...! ये कह कर दादी अम्माँ ने मेरे मुँह पर थप्पड़ मारा और कहा,अभी...जल्द बीस-तीस कुल्लियाँ करो!

    मेरी तमाम ख़ुशी ख़ाक में मिल गई और मैं मजबूर होकर कुल्लियाँ करने लगा।

    मैंने दिल में अहद कर लिया था कि जैसे ही अब्बा जी घर में तशरीफ़ लाएंगे उनसे दादी अम्माँ की शिकायत करूँगा कि एक अच्छी औरत के हाथों पान खाने पर उन्होंने मुझे मारा है।

    चुनाँचे जब तक जागता रहा उनका इंतिज़ार करता रहा। मगर वो उस वक़्त आए जब मैं सो चुका था।

    दूसरे दिन स्कूल से वापस आया तो हस्ब-ए-मामूल लाल मकान में जाने का इरादा किया। दादी अम्माँ ने ये इरादा मेरे चेहरे से पढ़ लिया। ग़ुस्से से बोलीं, अगर तू उस चुड़ैल के पास गया तो कच्चा चबा डालूँगी।

    ज़िंदगी में ये पहला मौक़ा था कि दादी अम्माँ ने इतने ख़ौफ़नाक अल्फ़ाज़ इतने दुरुश्त लहजे में कहे थे। मैं एक कोने में दुबक कर जा बैठा और किताब पढ़ने लगा। मेरी निगाहें किताब के सफ़हात पर जमी थीं लेकिन दिल पर अजीब क़िस्म के ख़्यालात छाए हुए थे। सोचता था कि ये औरत अगर इतनी बुरी है तो अब्बा जी ने उसे मकान में रहने की इजाज़त क्यों दी है? और वो औरत बुरी कब है। निहायत मोहब्बत से बोलती है, बड़े प्यार से पान खिलाती है।

    मैं इसी कशमकश में गिरफ़्तार था कि अब्बा जी गए और आते ही पलंग पर बैठ गए। आपा ने उनके हाथ धुलाए और दस्तरख़्वान बिछाने लगीं। उन्होंने कुछ सोच कर कहा,

    वहाँ खाना भेज दिया है...? नहीं... अच्छा वहीं सब कुछ भिजवा दो।

    ये कह कर वो उठे और सीढ़ियों की तरफ़ जाने लगे। अम्मी जान ने ज़ोर से हाथ अपनी पेशानी पर मारा और रोने लगीं। उस वक़्त मेरे दिल को सख़्त तकलीफ़ पहुँची। मैं बे-इख़्तियार चाहता था कि अम्मी जान का दुख बाँट लूँ। उनको जो तकलीफ़ पहुँची है फ़ौरन दूर कर दूँ। लेकिन मामला मेरी समझ में नहीं आता था। अम्मी जान तो रोती हुई चारपाई पर बैठ गईं, मगर दादी अम्माँ चीख़-चीख़ कर गालियाँ देने लगीं... गालियों के साथ-साथ बद-दुआओं की बौछाड़ भी उनके मुँह से निकलने लगी थी।

    मैं हैरान था। आख़िर कोसा किसे जा रहा है। कुछ देर सोचने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँच गया कि दादी अम्माँ लाल मकान वाली औरत को कोस रही हैं। लेकिन क्यों? इस सवाल के ज़ेहन में आते ही मेरा दिमाग़ चकराने लगा।

    जुमे को ना-मालूम किस वजह से स्कूल जल्द बंद हो गया। मैं घर आया और फिर फ़िरोज़ के घर जाने के बहाने लाल मकान में चला गया।

    वो औरत पलंग पर बैठी गुनगुना रही थी। मुझे आते देख कर बोली,आ जाओ, इतने दिन कहाँ रहे?

    मैं कुर्सी पर बैठ गया और तमाम वाक़िआ सुना दिया।

    दादी अम्माँ ने तेरे गाल पर थप्पड़ मारा क्योंकि तुमने मेरे हाथ से पान खाया था... ये लोग...

    उसके रुख़्सार सुर्ख़ हो गए और उसने मुँह फेर लिया।

    तुम कौन हो? मैंने पूछा।

    मैं किराएदार हूँ। उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया। मगर मुझे यूँ महसूस होता था जैसे वो अभी रो पड़ेगी!

    नहीं... तुम... मगर दादी अम्माँ तुम्हें बुरा भला क्यों कहती हैं?

    अच्छा... वो मुझे बुरा भला कहती हैं... कहने दो।

    मैं हैरान था वो मेरी हर बात पर क्यों मुस्कुरा देती है? मैं उसकी मुस्कुराहट का मतलब तो समझ सका। लेकिन चाहता था कि वो हर वक़्त मुस्कुराती रहे।

    मुझे पास बिठा कर वो मेरे बालों में कँघी करने लगी। उस वक़्त मुझे ऐसा मालूम होता था जैसे मेरी अपनी माँ प्यार और शफ़्क़त से मेरे बालों में कँघी कर रही है। मुझे दादी अम्माँ पर सख़्त ग़ुस्सा आया कि वो इतनी अच्छी और प्यार करने वाली औरत को गालियाँ देती हैं।

    जब मैं घर पहुँचा तो ख़ाला जान मौजूद थीं। इससे पेश्तर कि मैं ख़ाला जान को सलाम करूँ। दादी जान ने मेरी पुश्त पर दो हत्तड़ मारा और बोलीं, बेशर्म! आज तू फिर वहाँ चला गया था। ख़ाला जान बोलीं, बेटा! वो औरत बहुत बुरी है, तुम उसके पास क्यों जाते हो?

    मैंने कहा, वो बहुत अच्छी है, मुझे प्यार करती है।

    शायद मेरी और तवाज़ो होती कि अब्बा जी गए। ख़ाला जी ने उन्हें सलाम किया और कहने लगीं, भाई जान! उस चुड़ैल को चोटी से पकड़ कर घर से निकाल दें... भाई जान!

    अच्छा... आ। अब्बा जी मुस्कुरा कर बोले और लिबास तब्दील करने लगे।

    अब्बा जी चले गए तो दादी अम्माँ और ख़ाला जान दोनों कोठे पर जाकर, खिड़की खोल कर उस बेचारी को गालियाँ देने लगीं। मुझे उस पर बड़ा रहम आया मगर मैं कर ही क्या सकता था?

    मैं अच्छी तरह जानता था कि अगर अब लाल मकान पर गया तो मेरी ख़ैर नहीं। फिर भी दूसरे दिन शाम के क़रीब वहाँ चला गया।

    दरवाज़ा बंद था। मैं दरवाज़े को खटखटाने ही लगा था कि उधर से अब्बा जी की आवाज़ सुनाई दी। मैं झट से पीछे हट गया और दरवाज़े की दर्ज़ों में से अंदर देखने लगा।

    अब्बा जी पलंग पर बैठे थे और वो औरत कुर्सी पर... वो कह रही थी, मुझे तुम इसीलिए लाए थे। मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकती। इसमें मेरा क्या क़सूर है। मैंने आख़िर... तुम लाए मैं गई... जानते हो, तुमने क्या-क्या वादे किए थे?

    अब्बा जी हँसे,पागल हैं ये सब, तुम देखो किस तरह ठीक करता हूँ उन्हें।

    ये कह कर वो चारपाई से उठे और अपने दोनों हाथ उसकी गर्दन में हमाइल कर दिए। मेरा दिल धड़कने लगा। मैं जल्दी-जल्दी सीढ़ियों से उतरने लगा।

    दूसरे दिन ख़ालू भी गए और आते ही कहने लगे,कहाँ है वो हरामज़ादी...! चोटी पकड़ कर सीढ़ियों से गिरा दिया तो मेरा नाम ख़ुदा बख्श नहीं!

    दादी अम्माँ बोलीं, कहीं बाहर चली गई है, शाम को जाएगी।

    शाम हुई। मैं बिस्तर पर लेटा ही था कि फ़िरोज़ भागा-भागा आया।

    आओ तुम्हें एक तमाशा दिखाऊँ... तुम्हारा ख़ालू... उस लाल मकान वाली औरत को चोटी से पकड़ कर...

    मैं उसके साथ वहाँ गया। ख़ालू उस बेचारी को चोटी से पकड़ कर घसीट रहे थे... मुझे मालूम नहीं। मैंने क्या किया। मगर इतना याद है कि उस वक़्त दादी अम्माँ ने ज़ोर से मेरे मुँह पर थप्पड़ मारा था।

    रात को मैं सो सका, बेक़रारी से करवटें लेता रहा।

    सुबह ये देख कर मैं सख़्त हैरान हुआ कि अब्बा जी भी दादी अम्माँ और ख़ाला जान के साथ क़हक़हे लगा रहे हैं। अम्मी जान अपनी चमकती हुई आँखों से उन्हें देख-देख कर ख़ुश हो रही थीं।

    मैं कई दिन तक सोचता रहा कि वो कौन थी। आज हर शख़्स उस वाक़िए को भूल चुका है। मगर जब कभी अम्मी मरहूम अब्बा जी की याद में रोती हैं तो मुझे उस औरत की रोती हुई आँखें याद जाती हैं। जिसे ख़ालू जी ने चोटी से पकड़ कर सीढ़ियों से उतार दिया था।

    मअन मेरे दिल में एक आग सी लग जाती है और मैं चाहता हूँ कि अब्बा जी की तस्वीर उतार कर उसे टुकड़े-टुकड़े कर दूँ।

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