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मजीद का माज़ी

सआदत हसन मंटो

मजीद का माज़ी

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    ऐश-ओ-आराम में ज़िंदगी बसर करते हुए अपने अतीत को याद करने वाले एक अमीर शख़्स की कहानी है। वह अब बहुत अमीर है। उसके पास कोठी है, अच्छी तनख़्वाह है, बीवी-बच्चे हैं और हर तरह का आराम नसीब है। इन सब के बीच उसकी शांति न जाने कहाँ खो गई है। वह शांति जो उसे यह सब हासिल होने से पहले थी जब उसकी तनख़्वाह कम थी, बीवी-बच्चे नहीं थे, कारोबार था और न ही दूसरे झमेले। वह शांति से दो पैसे कमाता था और चैन से सोता था। अब सारे ऐश-ओ-आराम के बाद भी उसे वह शांति नसीब नहीं है।

    मजीद की माहाना आमदनी ढाई हज़ार रुपये थी। मोटर थी, एक आलीशान कोठी थी, बीवी थी। इस के इलावा दस-पंद्रह औरतों से मेल जोल था। मगर जब कभी वो विस्की के तीन चार पैग पीता तो उसे अपना माज़ी याद जाता। वो सोचता कि अब वो इतना ख़ुश नहीं जितना कि पंद्रह बरस पहले था। जब उसके पास रहने को कोठी थी, सवारी के लिए मोटर। बीवी थी किसी औरत से उसकी शनासाई थी।

    ढाई हज़ार रुपये तो एक अच्छी ख़ासी रक़म है। उन दिनों उसकी आमदन सिर्फ़ साठ रुपये माहवार थी। साठ रुपये जो उसे बड़ी मुश्किल से मिलते थे लेकिन इसके बावजूद वो ख़ुश था। उसकी ज़िंदगी उफ्तां-ओ-ख़ीज़ां हालात के होते हुए भी हमवार थी।

    अब उसे बेशुमार तफ़क्कुरात थे, कोठी के, बीवी के, बच्चों के, उन औरतों के जिनसे उनका मेल जोल था। इनकम टैक्स का टंटा अलग था, सेल्ज़ टैक्स का झगड़ा जुदा। इसके इलावा और बहुत सी उलझनें थीं जिनसे मजीद को कभी नजात ही नहीं मिलती थी। चुनांचे अब वो उस ज़माने को अक्सर याद करता था, जब उसकी ज़िंदगी ऐसे तफ़क्कुरात और ऐसी उलझनों से आज़ाद थी। वो एक बड़ी ग़रीबी की लेकिन बड़ी ख़ुशगवार ज़िंदगी बसर करता था।

    इनकम टैक्स ज़्यादा लग गया है, माहिरों से मशवरा करो। ऑफ़िसरों से मिलो, उनको रिश्वत दो। सेल्ज़ टैक्स का झगड़ा चुकाओ, ब्लैक मार्किट करो, यहां से जो कमाओ उसको व्हाईट करो, झूटी रसीदें बनाओ, मुक़द्दमों की तारीखें भुगतो। बीवी की फरमाइशें पूरी करो, बच्चों की निगहदाश्त करो। यूं तो मजीद काम बड़ी मुस्तैदी से करता था और वो अपनी इस नई हंगामाख़ेज़ ज़िंदगी में रच मच गया था लेकिन इसके बावजूद नाख़ुश था।

    ये नाख़ुशी उसे कारोबारी औक़ात में महसूस नहीं होती थी। इसका एहसास उसको सिर्फ़ उस वक़्त होता था जब वो फ़ुर्सत के औक़ात में आराम से बैठ कर विस्की के तीन चार पैक पीता था। उस वक़्त बीता हुआ ज़माना उसके दिल-ओ-दिमाग़ में एक दम अंगड़ाईयां लेता हुआ बेदार हो जाता और वो बड़ा सुकून महसूस करता। लेकिन जब उस बीते हुए ज़माने की तस्वीर उसके दिल-ओ-दिमाग़ में मह्व हो जाती तो वो बहुत मुज़्तरिब हो जाता, पर ये इज़तराब देरपा नहीं होता था क्योंकि मजीद फ़ौरन ही अपनी कारोबारी उलझनों में गिरफ़्तार होजाता था।

    मजीद ने जो कुछ बनाया था, अपनी मेहनत-ओ-मशक़्क़त से बनाया था। कोठी, उसका साज़-ओ- सामान, मोटर, ग़रज़ किहर चीज़ उसके गाढे पसीने की कमाई थी। उसको इस बात का बहुत मान था कि आसाइश के जितने सामान हैं, सब उसने ख़ुद बनाए हैं। उसने किसी से मदद नहीं ली, लेकिन तफ़क्कुरात अब ज़्यादा होगए थे।

    वो जो दस-पंद्रह औरतें उसके लिए वबाल-ए-जान बन गई थीं। एक से मिलो तो दूसरी नाराज़ होती थीं। टेलीफ़ोन पे टेलीफ़ोन रहे हैं, बीवी का डर अलग, कारोबार की फ़िक्र जुदा। अजब झनजट था। मगर वो दिन भी थे जब मजीद को सिर्फ़ दो रुपये रोज़ाना मिलते थे। साठ रुपये माहवार जो उसे बड़ी मुश्किल से मिले थे मगर दिन अ’जीब अंदाज़ में गुज़रते थे। बड़े दिलचस्प थे वो दिन, बड़ी दिलचस्प थीं वो रातें जो लकड़ी के एक बंच पर गुज़रती थीं जिसमें हज़ारहा खटमल थे, ख़ुदा मालूम कितने उम्र रसीदा, क्योंकि वो बेंच बहुत पुरानी थी।

    इसके मालिक ने दस बरस पहले उसको एक दुकानदार से लिया था जो अपना कारोबार समेट रहा था। उस दुकानदार ने ग्यारह बरस पहले इसका सौदा एक कबाड़ी से किया था।

    मजीद को जो मज़ा, जो लुत्फ़ इस खटमलों से भरी हुई बेंच पर सोने में आया था, अब उसे अपने पुरतकल्लुफ़ स्प्रिंगों वाले पलंग पर सोने में नहीं आता था। अब उसे हज़ारों की फ़िक्र होती थी। उस वक़्त सिर्फ़ दो रुपये रोज़ाना की। उन दिनों उसके पास कैनवस के दो बूट थे,अब सैकड़ों थे मगर वो बात नहीं थी। हर रोज़ दिन के कम से फ़ारिग़ होकर जब वो अपने दफ़्तर के बेंच पर सोने लगता तो बूट उतार कर उस पर ब्लिंकू मिलता। सुबह उठ कर हमाम में इकन्नी दे कर नहाता, शेव करता, सामने होटल में बाहर वाले से कहता कि उसका नाश्ता ले आये, एक मक्खन लगा ब्राउन, एक प्याली चाय, लुत्फ़ आजाता। नाश्ता करके वो पाशिंग शो का सिगरेट पीता,एक पान खाता और काम शुरू कर देता।

    दोपहर का खाना वो भिन्डी बाज़ार में हाजी के होटल में खाता, ये होटल कितना अच्छा था। खड़ी दाल,घी में बघारी हुई, कितनी मज़ेदार होती थी। खारा गोश्त तो बेहद लज़ीज़ होता था। फिर बर्फ का ठंडा पानी, पासिंग शो का एक सिगरेट, उसका सारा वजूद हश्शाश बश्शाश हो जाता था।

    खाने के बाद थोड़ा सा आराम किया, फिर कम शुरू कर दिया। शाम को छ: बजे फ़ारिग़ हुए। एक आना ट्राम पर खर्चा और सीधे अपोलोबंदर पहुँच गए। ठंडी हवा भांत भांत के आदमी, भांत भांत की बोलियां, बड़ी बड़ी आलिशान इमारतें, वसी’अ-ओ-अ’रीज़ समुंदर, उंची उंची लहरें, कश्तियाँ, मोटरें, साइकिलें, ख़ूबसूरत औरतें, मरहटी औरतें जो अपने चमकीले जूड़ों पर फूलों की वेनी लगाई थीं, पारसी औरतें, यहूदी औरतें, तीखी तीखी नाक वाली एंग्लो इंडियन और यूरोपियन औरतें। ये सब उसके पास से गुज़रतीं, वो उनको देखता तो उसके दिल-ओ-दिमाग़ को फ़रहत पहुंचती। उसको कभी ये ख्वाहिश होतु कि कोई उसकी हो जाए लेकिन अब बीवी के इलावा दस-पंद्रह औरतों से उसका जिंसी मेलजोल था। अब वो हर ख़ूबसूरत औरत को शहवानी नज़रों से देखता था, तरकीबें सोचता कि किस तरह इनको हासिल किया जाए।

    अब भी वो सैर करता था, बाग़ों में घूमता था मगर फूल इतने ख़ूबसूरत दिखाई नहीं देते जितने कि उस ज़माने में दिखाई देते थे। अब सैकड़ों फूल उसके गुलदानों में पड़े रहते थे जो मुरझा जाने पर फेंक दिए जाते थे, उसकी निगाह उन पर पड़ती ही नहीं थी, पड़ती भी होगी तो वो उनमें कोई कशिश महसूस नहीं करता था।

    एक दिन अपोलोबंदर गए, दूसरे दिन चौपाटी चले गए, दहीबड़े और चाट खाई, गीली रेत पर बैठे समुंदर का नज्ज़ारा करते रहे। दूर हद-ए-निगाह तक फैला समुंदर, धुप में चांदनी की तरह चमकती हुई लहरें, कश्तियों में सफ़ेद सफ़ेद बादबान... यहां से जी उकताया तो मालाबार हिल चले गए, हैंगिंग गार्डेंस कैसा फ़रहत बख्श मक़ाम था।

    उस ज़माने में उसका कोई दुशमन नहीं था, उसको सारी दुनिया दोस्त नज़र आती थी, ट्राम उसकी दोस्त थी, खुला आसमान उसका दोस्त था,सड़कें और फुटपाथ उसके दोस्त थे, खटमलों से भरे बेंच पर सोने से पहले वो फुटपाथ पर सोया करता था... हर चीज़ उसको अपनी महसूस होती थी, मगर अब अपने भी पराए लगते थे। सैकड़ों हरीफ़ थे कारोबार में, इश्क़ बाज़ियों में, हर जगह, हर मुक़ाम पर उसका कोई कोई हरीफ़ मौजूद होता था।

    वो ज़िंदगी अ’जीब-ओ-ग़रीब थी। ये ज़िंदगी भी अ’जीब-ओ-ग़रीब थी मगर दोनों में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ था। वो तफ़क्कुर से आज़ाद थी, ये तफ़क्कुर से पुर। छोटी से छोटी ख़ुशी उसके दिल-ओ-दिमाग़ में एक अ’र्से तक मौजूद रहती। एक अ’र्से तक उसको शादां-ओ-फ़रहां रखती। छः आने दे कर एक मील टैक्सी में बैठे तो ये एक बहुत बड़ी अय्याशी थी। भिकारी को एक पैसा दिया तो बड़ी रुहानी मसर्रत महसूस की। अब वो सैकड़ों की ख़ैरात करता था और कोई रुहानी मसर्रत महसूस नहीं करता था, इसलिए कि ये महज़ नुमाइश की ख़ातिर होती।

    उस ज़माने में उस की अय्याशियां बड़ी छोटी छोटी मगर बड़ी दिलचस्प होती थीं। ख़ुद को ख़ुश करने के लिए वो बड़े निराले तरीक़े ईजाद कर लेता था।

    इलेक्ट्रिक ट्रेन में बैठे और किसी गांव में जा कर ताड़ी पीने लगे।

    पतंग लिया और चौपाटी पर बच्चों के साथ उड़ाने लगे।

    दादर स्टेशन पर सुबह सवेरे चले गए और स्कूल जाने वाली लड़कियां ताड़ते रहे,पुल के नीचे खड़े हो गए, एंग्लो इंडियन लड़कियां स्कर्ट पहने ऊपर चढ़तीं तो उनकी नंगी टांगें नज़र आतीं। इस नज़ारे से उसको बड़ी तिफ़लाना सी मसर्रत महसूस होती।

    कभी कभी तवील फ़ासले पैदल तय करता। घर पहुंचता तो उसे ख़ुशी होती कि उसने इकन्नी या दुवन्नी बचा ली है। ये इकन्नी या दुवन्नी वो किसी ऐसी चीज़ पर ख़र्च करता जो उसके रोज़ाना प्रोग्राम में नहीं होती थी।

    किसी लड़की को मोहब्बत भरा ख़त लिखा और जो पता दिमाग़ में आया लिख कर पोस्ट कर दिया और इस हिमाक़त पर दिल ही दिल में ख़ूब हंसे।

    एक उंगली का नाख़ुन बढ़ा लिया और किसी दुकान से टेस्ट करने के बहाने उस पर क्युटेक्स लगा लिया।

    एक दिन सिर्फ़ दूसरों से मांग-मांग के सिगरेट पिए और बेहद शरारत भरी ख़ुशी महसूस की।

    दफ़्तर में बेंच के खटमलों ने ज़्यादा तंग किया तो सारी रात बाज़ारों में घूमते रहे और बजाय कोफ़्त के राहत महसूस की।

    जेब में पैसे कम हुए तो दोपहर का खाना गोल कर दिया और ये महसूस किया कि वो खा चुका है।

    अब ये बातें नहीं थी। दफ़्तर से उसने रुपये कमाने के ढंग सीखे। दौलत आने लगी तो ये सब बातें आहिस्ता आहिस्ता ग़ायब हो गईं। उसकी ये नन्ही नन्ही मसर्रतें सब सोने और चांदी के नीचे दब गईं।

    अब रक़्स-ओ-सरोद की महफ़िलें जमती थीं। मगर उनसे वो लुत्फ़ हासिल नहीं होता था जो पुल के नीचे खड़े हो कर एक ख़ास ज़ाविए से नंगी मुतहर्रिक टांगें देखने में महसूस होता था। उसकी रातें पहले बिल्कुल तन्हा गुज़रती थीं। अब कोई कोई औरत उसकी आग़ोश में होती मगर वो सुकून ग़ायब था। वो कुँवारा सुकून जिसमें वो रात भर मलफ़ूफ़ रहता था। अब उसे ये फ़िक्र दामनगीर होती थी कि कहीं उसकी बीवी को पता चल जाये, कहीं ये औरत हामिला हो जाये, कहीं उसको बीमारी लग जाये, कहीं उस औरत का ख़ाविंद आन धमके। पहले ऐसे तफ़क्कुरात का सवाल ही पैदा नहीं होता था।

    अब उसके पास हर क़िस्म की शराब मौजूद रहती थी मगर वो मज़ा, वो सुरूर जो उसे पहले हर रोज़ शाम को जापान की बनी हुई “अब ही बियर” पीने में आता था बिल्कुल ग़ायब ही हो गया था।

    उसका मा’मूल था कि दफ़्तर से फ़ारिग़ हो कर चौपाटी या अपोलो बंदर की सैर की, ख़ूब घूमे फिरे। नज़ारों का मज़ा लिया, आठ बजे तो घर का रुख़ किया। किसी नल से मुँह धोया और बाई खल्ला पुल के पास वाली बार में दाख़िल हो गए। पारसी सेठ की जो बहुत ही मोटा और उसकी नाक बड़ी बेहंगम थी, “साहब जी” कहा “कहम सेठ सूं हाल छे?”

    उसको बस सिर्फ़ इतनी गुजराती आती थी, मगर जब वो कहता तो उसे बड़ी ख़ुशी होती कि वो इतने अलफ़ाज़ बोल सकता है। सेठ मुस्कुराता और कहता, “सारु छे, सारु छे।”

    फिर वो पारसी सेठ से काउंटर के पास खड़े हो कर जंग की बातें छेड़ देता। थोड़ी देर के बाद यहां से हट कर वो कोने वाली मेज़ के पास बैठ जाता। ये उसकी महबूब मेज़ थी। उसके ऊपर का हिस्सा संगमरमर का था। बैरा उसे गीले कपड़े से साफ़ करता और मजीद से कहता, “बोलो सेठ।”

    ये सुन कर मजीद ख़ुद को वाक़ई सेठ समझता। उस वक़्त उसकी जेब में एक रुपये चार आने होते। वो बैरे की तरफ़ देख कर बड़ी शान से मुस्कुराता और कहता, “हर रोज़ तुम मुझसे पूछते हो, सब जानते हो... ले आओ, जो पिया करता हूँ।”

    बैरा अपनी आदत के मुताबिक़ जाने से पहले गीले कपड़े से मेज़ साफ़ करता। पोंछ कर एक गिलास रखता। एक प्लेट में काबुली चने, दूसरी में खारी सींग या’नी नमक लगी मूंगफली लाता। मजीद उस से कहता, “पापड़ लाना तुम हमेशा भूल जाते हो।”

    ये चीज़ें गज़क के तौर पर बियर के साथ मुफ़्त मिलती थीं। मजीद ने ये तरीक़ा ईजाद किया था कि बैरे से काबुली चनों की एक और प्लेट मंगवा लेता था। चने काफ़ी बड़े बड़े होते थे, नमक और काली मिर्च से बहुत मज़ेदार बन जाते थे। मूंगफली की प्लेट होती थी। ये सब मिल मिला कर मजीद का रात का खाना बन जाते थे।

    बियर आती तो वो बड़े पुरसुकून अंदाज़ में उसको गिलास में उंडेलता, आहिस्ता आहिस्ता घूँट भरता। ठंडी यख़ बियर उसके हलक़ से उतरती तो एक बड़ी अ’जीब फ़रहत उसको महसूस होती। उसको ऐसा लगता कि सारी दुनिया की ठंडक उसके दिल-ओ-दिमाग़ में जमा हो गई है। वो मोटे पारसी की तरफ़ देखता और सोचता, ये पारसियों की नाक क्यों इतनी मोटी होती है। इस क़ौम ने क्या क़ुसूर किया है कि ख़ुदा उनकी नाकों से बिल्कुल ग़ाफ़िल है।

    परसों ट्रेन में जो पारसिन बैठी थी, बड़ा सुडौल बदन, ख़ूबसूरत आँखें, उभरा हुआ सीना, बेदाग़ सफ़ेद रंग, माथा कुशादा, पतले पतले होंट, लेकिन ये बड़ी तोते ऐसी नाक, उसको देख कर मजीद को बहुत तरस आया था। उसने सोचा था कि आया ऐसी कोई तरकीब नहीं हो सकती कि उसकी नाक ठीक हो जाये। फिर उसके दिमाग़ में मुख़्तलिफ़ औक़ात पर देखी हुई ख़ूबसूरत और जवान लड़कियां तैरने लगती थीं। उसको ऐसा लगता था कि वो उनका शबाब बियर में घोल कर पी रहा है।

    देर तक वहां बैठा वो अपनी ज़िंदगी के हसीन लम्हात दुहराता रहता।

    पंद्रह दिन हुए अपोलो बंदर पर जब तेज़ हवा में एक यहूदन लड़की का रेशमी स्कर्ट उठा था तो कितनी मुतनासिब और हसीन टांगों की झलक दिखाई दी थी।

    पिछले इतवार ईरानी के होटल में पाए का शोरबा कितना लज़ीज़ था। कैसे चटख़ारे ले लेकर उसने उसमें गर्म-गर्म नान भिगो कर खाया था।

    रंगीन फ़िल्म कितना अच्छा था, रक़्स कितना दिलफ़रेब था उन औरतों का।

    आज सुबह नाशते के बाद सिगरेट पी कर लुत्फ़ आगया। ऐसा लुत्फ़ हर रोज़ आया करे तो मज़े आजाऐं।

    वो मियां-बीवी जो उसने दादर स्टेशन पर देखे थे, आपस में कितने ख़ुश, थे कबूतर और कबूतरी की तरह गुटक रहे थे।

    केकी मिस्त्री बड़ा आदमी है। कल मैंने स्प्रो मांगी तो उसने मुफ़्त दे दी, कहने लगा, “इसके दाम क्या लूंगा आप से।” पिछले माह उसने वक़्त पर मेरी मदद भी की थी। पाँच रुपये उधार मांगे, फ़ौरन दे दिए और कभी तक़ाज़ा किया।

    ट्रेन में जब मैंने उस रोज़ मरहटी लड़की को अपनी सीट दी तो उसने कितनी प्यारी शुक्रगुज़ारी से कहा था, “थैंक यू।”

    फिर वो मोटे पारसी की तरफ़ देखता। उसके चेहरे पर ये बड़ी नाक उसको नज़र आती। मजीद फिर सोचता, “ये क्या बात है, इन पारसियों की नाकों के साथ इतना बुरा सुलूक किया गया है... कितनी कोफ़्त हो रही है इस नाक से।” फ़ौरन ही उसे ख़याल आता कि ये पारसी बड़ा नेक आदमी है क्योंकि वो उसको उधार दे देता था। जब उसकी जेब में पैसे होते तो वो काउंटर के पास जाता और उससे कहता, “सेठ, आज माल पानी नहीं... कल!”

    सेठ मुस्कुराता, “कोई वांदा नहीं।” या’नी कोई हर्ज नहीं, फिर आजाऐंगे।

    बियर की बोतल चौदह आने में आती थी। उसको ख़ाली कर के और प्लेटें साफ़ कर के वो हाथ के बड़े ख़ूबसूरत इशारे से बैरे को बिल लाने के लिए कहता। बैरा बिल लाता तो वो उसे एक रुपया देता और बड़ी शान से कहता, “बाक़ी दो आने तुम अपने पास रक्खो।”

    बैरा सलाम करता। मजीद बेहद मसरूर और शादमां उठता और पारसी सेठ को “साहब जी” कह कर दफ़्तर की तरफ़ रवाना होता। वहां पहुंचते ही उसके क़दम रुक गये। पड़ोस की गली में एक छोटी सी तारीक खोली में मिस लीना रहती थी। किसी ज़माने में बड़ी मशहूर डांसर थी मगर अब बूढ़ी हो चुकी थी, यहूदन थी, उसकी दो लड़कियां थीं। ईस्थर और हेलेन। ईस्थर सोलह बरस की थी और हेलेन तेरह बरस की, दोनों रात को अपनी माँ के पास एक लंबा कुर्ता पहने लेटी होती थीं। सिर्फ़ एक पलंग था। मिस लीना फ़र्श पर चटाई बिछा कर सोती थी।

    रात को बियर पी कर मिस लीना के हाँ जाना मजीद का मा’मूल बन गया। वो बाहर होटल वाले को तीन चाय का आर्डर दे कर गली में दाख़िल होता और मिस लीना की खोली में पहुंच जाता। अंदर टीन की कुप्पी जल रही होती। ईस्थर और हेलेन क़रीब क़रीब नीम बरहना होतीं। मजीद पहुंचता तो ज़ोर से पुकारता, “अस्सलामु अलैकुम।”

    माँ बेटियां ठेट अरबी लहजे में “वा-अलैकुम अस्सलाम” कहतीं और वो लोहे की कुर्सी पर बैठ जाता और मिस लीना से कहता, “चाय का आर्डर दे आया हूँ।”

    ईस्थर बारीक आवाज़ में कहती, “थैंक यू।” छोटी बिस्तर पर लौटें लगाना शुरू कर देती। मजीद को उसकी आड़ू आड़ू जितनी छातीयों और नंगी टांगों की कई झलकियां दिखाई देतीं जो उसके मसरूर-ओ-मख़मूर दिमाग़ को बड़ी फ़रहत बख़्शतीं।

    बाहर वाला चाय लेकर आता तो माँ-बेटियां पीना शुरू कर देतीं। मजीद ख़ामोश बैठा रहता। उस तंग-ओ-तार माहौल में एक अ’जीब-ओ-ग़रीब सुकून उसको महसूस होता। वो चाहता कि उन तीनों का शुक्रिया अदा करे। इस धुआँ देने वाली कुप्पी का भी शुक्रिया अदा करे जो धीमी धीमी रोशनी फैला रही थी। वो लोहे की उस कुर्सी का भी शुक्रिया अदा करना चाहता था जिसने उस को नशिस्त पेश की हुई थी।

    थोड़ी देर वो माँ-बेटियों के पास बैठता। दोनों लड़कियां ख़ूबसूरत थीं, उनकी ख़ूबसूरती मजीद की आँखों में बड़ी प्यारी नींद ले आती। रुख़सत ले कर वो उठता और झूमता झामता अपने दफ़्तर में पहुंच जाता और कपड़े बदल कर बेंच पर लेटता और लेटते ही ख़ुशगवार और पुरसुकून नींद की गहराईयों में उतर जाता।

    फ़ुर्सत के औक़ात में विस्की के तीन चार पैग पी कर जब मजीद उस ज़माने को याद करता तो कुछ अ’र्से के लिए सब कुछ भूल कर उसमें मह्व हो जाता, नशा कम होता तो वो ब्लैक मार्किट के मुतअ’ल्लिक़ सोचने लगता। रुपया कमाने के नए ढंग तख़लीक़ करता। उन औरतों के मुतअ’ल्लिक़ ग़ौर करता जिनसे वो जिन्सी रिश्ता क़ायम करना चाहता था।

    मजीद का माज़ी जंग से पहले की फ़िज़ा में गुम हो चुका था... एक मद्धम लकीर सी रह गई थी जिसको मजीद अब दौलत से पीट रहा था।

    स्रोत:

    خالی بوتلیں،خالی ڈبے

      • प्रकाशन वर्ष: 1950

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