अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें 'जिगर'
अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया
शग़्ल-ए-उल्फ़त को जो अहबाब बुरा कहते हैं
कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या कहते हैं
अहबाब को दे रहा हूँ धोका
चेहरे पे ख़ुशी सजा रहा हूँ
आड़े आया न कोई मुश्किल में
मशवरे दे के हट गए अहबाब
ग़म मुसलसल हो तो अहबाब बिछड़ जाते हैं
अब न कोई दिल-ए-तन्हा के क़रीं आएगा
हिज्र-ए-जानाँ के अलम में हम फ़रिश्ते बन गए
ध्यान मुद्दत से छुटा आब-ओ-तआ'म-ओ-ख़्वाब का
इस वहम से कि नींद में आए न कुछ ख़लल
अहबाब ज़ेर-ए-ख़ाक सुला कर चले गए