पिता पर शेर

उर्दू शायरी में रिश्तों

की बड़ी अहमियत है। पिता से मोहब्बत और प्रेम का ये पाक जज़्बा भी शायरी का विषय रहा है। हम ऐसे कुछ मुंतख़ब अशआर आप तक पहुँचा रहे हैं जो पिता को मौज़ू बनाते हैं। पिता के प्यार, उस की मोहब्बत और शफ़क़त को और अपने बच्चों के लिए उस की जां-निसारी को वाज़ेह करते हैं। ये अशआर जज़्बे की जिस शिद्दत और एहसास की जिस गहराई से कहे गए हैं इससे मुतअस्सिर हुए बग़ैर आप नहीं रह सकते। इन अशआर को पढ़िए और पिता से मोहब्बत करने वालों के दर्मियान शएर कीजिए।

हमें पढ़ाओ रिश्तों की कोई और किताब

पढ़ी है बाप के चेहरे की झुर्रियाँ हम ने

मेराज फ़ैज़ाबादी

बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं

और कोई दूसरा इस ख़्वाब को पढ़ ले तो बुरा मानती हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ये सोच के माँ बाप की ख़िदमत में लगा हूँ

इस पेड़ का साया मिरे बच्चों को मिलेगा

मुनव्वर राना

मुझ को छाँव में रखा और ख़ुद भी वो जलता रहा

मैं ने देखा इक फ़रिश्ता बाप की परछाईं में

अज्ञात

उन के होने से बख़्त होते हैं

बाप घर के दरख़्त होते हैं

अज्ञात

घर की इस बार मुकम्मल मैं तलाशी लूँगा

ग़म छुपा कर मिरे माँ बाप कहाँ रखते थे

साजिद जावेद साजिद

अज़ीज़-तर मुझे रखता है वो रग-ए-जाँ से

ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से

ताहिर शहीर

मुद्दत के बाद ख़्वाब में आया था मेरा बाप

और उस ने मुझ से इतना कहा ख़ुश रहा करो

अब्बास ताबिश

मुझ को थकने नहीं देता ये ज़रूरत का पहाड़

मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते

मेराज फ़ैज़ाबादी

बाप ज़ीना है जो ले जाता है ऊँचाई तक

माँ दुआ है जो सदा साया-फ़िगन रहती है

सरफ़राज़ नवाज़

बच्चे मेरी उँगली थामे धीरे धीरे चलते थे

फिर वो आगे दौड़ गए मैं तन्हा पीछे छूट गया

ख़ालिद महमूद

वो वक़्त और थे कि बुज़ुर्गों की क़द्र थी

अब एक बूढ़ा बाप भरे घर पे बार है

मुईन शादाब

मेरा भी एक बाप था अच्छा सा एक बाप

वो जिस जगह पहुँच के मरा था वहीं हूँ मैं

रईस फ़रोग़

जब भी वालिद की जफ़ा याद आई

अपने दादा की ख़ता याद आई

मोहम्मद यूसुफ़ पापा

इन का उठना नहीं है हश्र से कम

घर की दीवार बाप का साया

अज्ञात

वो पेड़ जिस की छाँव में कटी थी उम्र गाँव में

मैं चूम चूम थक गया मगर ये दिल भरा नहीं

हम्माद नियाज़ी

हड्डियाँ बाप की गूदे से हुई हैं ख़ाली

कम से कम अब तो ये बेटे भी कमाने लग जाएँ

रऊफ़ ख़ैर

देर से आने पर वो ख़फ़ा था आख़िर मान गया

आज मैं अपने बाप से मिलने क़ब्रिस्तान गया

अफ़ज़ल ख़ान

मैं अपने बाप के सीने से फूल चुनता हूँ

सो जब भी साँस थमी बाग़ में टहल आया

हम्माद नियाज़ी

मैं ने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग

अपने बच्चे के खिलौने को बचाने के लिए

शकील जमाली

सुब्ह सवेरे नंगे पाँव घास पे चलना ऐसा है

जैसे बाप का पहला बोसा क़ुर्बत जैसे माओं की

हम्माद नियाज़ी

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