aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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इंतिक़ाम पर शेर

इंतिक़ाम या प्रतिशोध

वह जज़्बा है जिसे चाहे जितना भी नापसंदीदा समझा गया हो जिन्दगी के किसी न किसी लम्हे में आप पर हावी होने की कोशिश ज़रूर करता है। कभी कभी यह जज़्बा ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ भी उकसाता है जो आपके बहुत क़रीब रहे हों लेकिन जाने अनजाने उनकी किसी बात से तकलीफ़ पहुँची हो। ऐसे हालात में इंतिक़ाम शायरी के लिए माहौल तैयार करते हैं जिनमें छुपी आग पढ़ने वाले के दिल तक पहुंचती है। पेश है ऐसे ही कुछ चुन्निदा अशआरः

कोई तुम सा भी काश तुम को मिले

मुद्दआ हम को इंतिक़ाम से है

मीर तक़ी मीर

हुस्न को शर्मसार करना ही

इश्क़ का इंतिक़ाम होता है

असरार-उल-हक़ मजाज़

हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया

तुम ने क्या सोच कर मोहब्बत की

सलीम कौसर

ख़ुद अपने आप से लेना था इंतिक़ाम मुझे

मैं अपने हाथ के पत्थर से संगसार हुआ

इब्राहीम अश्क

मैं ज़ख़्म खा के गिरा था कि थाम उस ने लिया

मुआफ़ कर के मुझे इंतिक़ाम उस ने लिया

फ़ैसल अजमी

तुझ से वफ़ा की तो किसी से वफ़ा की

किस तरह इंतिक़ाम लिया अपने आप से

हिमायत अली शाएर

अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा

शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया

अज़हर इनायती

ये इंतिक़ाम है या एहतिजाज है क्या है

ये लोग धूप में क्यूँ हैं शजर के होते हुए

हसीब सोज़

ख़ुद आग दे के अपने नशेमन को आप ही

बिजली से इंतिक़ाम लिया है कभी कभी

सईद शहीदी

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