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अहमद फ़राज़ के शेर
नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है
रोज़ आ जाता है समझाता है यूँ है यूँ है
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न तुझ को मात हुई है न मुझ को मात हुई
सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं
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मुंतज़िर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आएगा यहाँ कौन है आने वाला
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न शब ओ रोज़ ही बदले हैं न हाल अच्छा है
किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है
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टैग : नया साल
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जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर
आज तक हर नक़्श फ़रियादी मिरी तहरीर का
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न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं
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टैग : सफ़र
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दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता
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टैग : भरोसा
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बस इस सबब से कि तुझ पर बहुत भरोसा था
गिले न हों भी तो हैरानियाँ तो होती हैं
कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है
तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
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ढूँड उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
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तअ'ना-ए-नश्शा न दो सब को कि कुछ सोख़्ता-जाँ
शिद्दत-ए-तिश्ना-लबी से भी बहक जाते हैं
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अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए
ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे
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कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं
कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते
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अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं
कितनी रग़बत थी तिरे नाम से पहले पहले
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तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
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टैग : हज़ार दास्तान-ए-इश्क़
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एक सफ़र वो है जिस में
पाँव नहीं दिल थकता है
वो वक़्त आ गया है कि साहिल को छोड़ कर
गहरे समुंदरों में उतर जाना चाहिए
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किसी दुश्मन का कोई तीर न पहुँचा मुझ तक
देखना अब के मिरा दोस्त कमाँ खेंचता है
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क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उस से
वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जाने वाला
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टैग : एटीट्यूड
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हो दूर इस तरह कि तिरा ग़म जुदा न हो
पास आ तो यूँ कि जैसे कभी तू मिला न हो
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अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम
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अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं
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मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर
वो जो दीवानगी कि थी है अभी
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टैग : दीवानगी
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हम को उस शहर में तामीर का सौदा है जहाँ
लोग मेमार को चुन देते हैं दीवार के साथ
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तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया
आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आने वाला
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जब भी दिल खोल के रोए होंगे
लोग आराम से सोए होंगे
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हवा में नश्शा ही नश्शा फ़ज़ा में रंग ही रंग
ये किस ने पैरहन अपना उछाल रक्खा है
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जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो
कल पशेमाँ हों कि क्यूँ दिल का कहा माना नहीं
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टैग : दिल
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हम अगर मंज़िलें न बन पाए
मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ
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इक तो हम को अदब आदाब ने प्यासा रक्खा
उस पे महफ़िल में सुराही ने भी गर्दिश नहीं की
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कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
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टैग : हिज्र
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मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
अपने बंदों से तो पिंदार ख़ुदाई ले ले
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सब ख़्वाहिशें पूरी हों 'फ़राज़' ऐसा नहीं है
जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते
हवा-ए-ज़ुल्म सोचती है किस भँवर में आ गई
वो इक दिया बुझा तो सैंकड़ों दिए जला गया
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अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा
सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला
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सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते
आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो
शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मय-कशी रही
उस ने जो फेर ली नज़र मैं ने भी जाम रख दिया
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किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ
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है बादा-गुसारों को तो मयख़ाने से निस्बत
तुम मसनद-ए-साक़ी पे किसी को भी बिठा दो
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बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर ख़बर
चलो 'फ़राज़' को ऐ यार चल के देखते हैं
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जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएँ मुझे न दो
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किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
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दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें
उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा
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हुआ है तुझ से बिछड़ने के बा'द ये मा'लूम
कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी
चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह
पलट के देखा तो बैठे हैं नक़्श-ए-पा की तरह
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अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
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उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
ऐ मिरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे
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