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नरेश कुमार शाद

1927 - 1969 | दिल्ली, भारत

प्रमुख उर्दू शायर/ क़तआत के लिए मशहूर

प्रमुख उर्दू शायर/ क़तआत के लिए मशहूर

नरेश कुमार शाद के शेर

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अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर

तेरा ही इंतिज़ार किया है कभी कभी

महसूस भी हो जाए तो होता नहीं बयाँ

नाज़ुक सा है जो फ़र्क़ गुनाह सवाब में

महफ़िल उन की साक़ी उन का

आँखें अपनी बाक़ी उन का

ज़िंदगी नाम है जुदाई का

आप आए तो मुझ को याद आया

तू मिरे ग़म में हँसती हुई आँखों को रुला

मैं तो मर मर के भी जी सकता हूँ मेरा क्या है

अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था

इश्क़ ने दिल में रौशनी की है

गुनाहों से हमें रग़बत थी मगर या रब

तिरी निगाह-ए-करम को भी मुँह दिखाना था

तिरा हिज्र मेरा नसीब है तिरा ग़म ही मेरी हयात है

मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों तू कहीं भी हो मिरे पास है

इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र हो

मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर हो

तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद

इक शम-ए-आरज़ू है जो अब तक बुझी नहीं

किसी के जौर-ओ-सितम का तो इक बहाना था

हमारे दिल को बहर-हाल टूट जाना था

ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था

मुद्दतों मौत ने भी तरसाया

किसी से रस्म-ओ-रह-ए-दोस्ती तो क्या करते

हमारा ख़ुद से तआ'रुफ़ भी ग़ाएबाना था

ये सोच कर भी हँस सके हम शिकस्ता-दिल

यारान-ए-ग़म-गुसार का दिल टूट जाएगा

ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा

जिसे नफ़रत है उस के आदमी से

ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे

मगर लोगों से अब ख़ाइफ़ ख़ुदा है

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