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ख़ुदकुशी

सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जिसके यहाँ शादी के बाद बेटी का जन्म होता है। लाख कोशिशों के बाद भी वह उसका कोई अच्छा सा नाम नहीं सोच पाता है। नाम की तलाश के लिए वह डिक्शनरी ख़रीदता है, पर जब तक डिक्शनरी लेकर वह घर पहुँचता है तब तक बेटी की मौत हो चुकी होती है। बेटी की मौत के दुख में कुछ ही दिनों बाद उसकी पत्नी की भी मृत्यु हो जाती है। ज़िंदगी के दिए उन दुखों से तंग आकर वह आत्महत्या करने की सोचता है। इस उद्देश्य से वह रेलवे लाइन पर जाता है मगर वहाँ पहले से ही एक दूसरा व्यक्ति लाइन पर लेटा होता है। सामने से आ रही ट्रेन को देखकर वह उस व्यक्ति को बचा लेता है और उस से ऐसी बातें कहता है कि उन बातों से उसकी ख़ुद की ज़िंदगी पूरी तरह बदल जाती है।

    ज़ाहिद सिर्फ़ नाम ही का ज़ाहिद नहीं था, उसके ज़ुहद-ओ-तक़वा के सब क़ाइल थे, उसने बीस-पच्चीस बरस की उम्र में शादी की, उस ज़माने में उसके पास दस हज़ार के क़रीब रुपये थे, शादी पर पाँच हज़ार सर्फ़ हो गए, उतनी ही रक़म बाक़ी रह गई।

    ज़ाहिद बहुत ख़ुश था। उसकी बीवी बड़ी ख़ुश ख़सलत और ख़ूबसूरत थी। उसको उससे बेपनाह मुहब्बत हो गई। वो भी उसको दिल-ओ-जान से चाहती थी, दोनों समझते थे कि जन्नत में आबाद हैं।

    एक बरस के बाद उनके हाँ एक लड़की पैदा हुई जो माँ पर थी, या’नी वैसी ही हसीन, बड़ी बड़ी ग़िलाफ़ी आँखें, उनपर लंबी पलकें, महीन अब्रू, छोटा सा लब-ए-दहन... उस लड़की का नाम सोचने में काफ़ी देर लग गई। ज़ाहिद और उसकी बीवी को दूसरों के तजवीज़ किए हुए नाम पसंद नहीं आते थे, वो चाहती थी कि ख़ुद ज़ाहिद नाम बताए।

    ज़ाहिद देर तक सोचता रहा, लेकिन उसके दिमाग़ में ऐसा कोई मौज़ूं-ओ-मुनासिब नाम आया जो वो अपनी बेटी के लिए मुंतख़ब करता।

    उसने अपनी बीवी से कहा, “इतनी जल्दी क्या है... नाम रख लिया जाएगा?”

    बीवी मुसिर थी कि नाम ज़रूर रखा जाये, “मैं अपनी बेटी को इतनी देर बेनाम नहीं रखना चाहती।”

    “वो कहता, “इसमें क्या हर्ज है... जब कोई अच्छा सा नाम ज़ेहन में आएगा तो इस गुल गोथनी के साथ टाँक देंगे।”

    “पर मैं इसे क्या कह कर पुकारूं? मुझे बड़ी उलझन होती है।”

    “फ़िलहाल बेटा कह देना काफ़ी है।”

    “ये काफ़ी नहीं है... मेरी बिटिया का कोई नाम होना चाहिए।”

    “तुम ख़ुद ही कोई मुंतख़ब कर लो।”

    “ये काम आपका है, मेरा नहीं।”

    “तो थोड़े दिन इंतिज़ार करो... मैं उर्दू की लुग़त लाता हूँ। उसको पहले सफ़े से आख़िरी सफ़े तक ग़ौर से देखूंगा... यक़ीनन कोई अच्छा नाम मिल जाएगा।”

    “मैंने आज तक ये कभी नहीं सुना था कि लोग अपने बच्चों-बच्चियों के नाम डिक्शनरियों से निकालते हैं।”

    “नहीं मेरी जान निकालते हैं... मेरा एक दोस्त है, उसके जब बच्ची पैदा हुई तो उसने फ़ौरन उर्दू की लुग़त निकाली और उसकी वर्क़गरदानी करने के बाद एक नाम चुन लिया।”

    “क्या नाम था?”

    “निकहत।”

    “इसके मा’नी क्या हैं?”

    “ख़ुशबू।”

    बड़ा अच्छा नाम है... निकहत... या’नी ख़ुशबू।”

    “तो यही नाम रख लो।”

    ज़ाहिद की बीवी ने अपनी बच्ची को जो सो रही थी एक नज़र देखा और कहा, “नहीं... मैं अपनी बिटिया के लिए पुराना नाम नहीं चाहती... कोई नया नाम तलाश कीजिए, जाईए डिक्शनरी ले आईए।”

    ज़ाहिद मुस्कुराया, “लेकिन मेरे पास पैसे कहाँ हैं?”

    ज़ाहिद की बीवी भी मुस्कुराई, “मेरा पर्स अलमारी में पड़ा है, उसमें जितने रुपये आपको चाहिऐं, निकाल लीजिए।”

    ज़ाहिद ने “बहुत बेहतर” कहा और अलमारी खोल कर उसमें से अपनी बीवी का पर्स निकाला और दस रुपये का एक नोट लेकर बाज़ार रवाना हो गया कि लुग़त ख़रीद ले।

    वो कई कुतुब फ़रोश दुकानों में गया... कई लुग़त देखे। बा’ज़ तो बहुत क़ीमती थे जिनकी तीन-तीन जिल्दें थीं। कुछ बड़े नाक़िस, आख़िर उसने एक लुग़त जिसकी क़ीमत वाजिबी थी, ख़रीद लिया और रास्ते में उसकी वर्क़ गरदानी करता रहा ताकि नाम का मसला जल्द हल हो जाये।

    जब वो अनारकली में से गुज़र रहा था तो उसको एक दोस्त मिल गया, वो उसे अपनी बूटों की दुकान में ले गया। वहां उसे क़रीब क़रीब एक घंटे तक बैठना पड़ा क्योंकि बहुत देर के बाद उससे मुलाक़ात हुई थी। जब उसके दोस्त को दौरान-ए-गुफ़्तुगू में पता चला कि ज़ाहिद के हाँ लड़की हुई है तो वो बहुत ख़ुश हुआ। तिजोरी में से ग्यारह रुपये निकाले और ज़ाहिद से कहा, “ये उस बच्ची को दे देना, कहना तुम्हारे चचा ने दिए हैं, नाम क्या रखा है उसका?”

    ज़ाहिद ने लुगत की तरफ़ देखा जिसकी जिल्द लाल रंग की थी, “अभी तक कोई अच्छा नाम सूझा नहीं।”

    उसके दोस्त ने जूते को कपड़े से साफ़ करते हुए कहा, “यार नाम रखने में दिक्क़त ही क्या पेश आती है। समीना है, शाहीना है, नसरीन है, अलमास है।”

    ज़ाहिद ने जवाब दिया, “ये सब बकवास है।”

    उसके दोस्त ने जूता डिब्बे में रखा, “तो अब जो बकवास तुम करोगे वो भी हम सुन लेंगे।” इसके बाद उठ कर उसने ज़ाहिद को गले से लगाया, “ख़ुदा उसकी उम्र दराज़ करे... नाम हो हो इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?”

    ज़ाहिद जब दुकान से बाहर निकला तो उसने सोचना शुरू किया कि वाक़ई नाम में क्या रखा है। ख़ैराती का ये मतलब तो नहीं कि वो बड़ी ख़ैरात करता है, ईदन क्या बला है... और घसीटा... क्या उसे लोग घसीटना शुरू कर दें... और ये रुलदो... शुबराती?

    उसके जी में आई कि लुग़त किसी गंदी मोरी में फेंक दे और घर जा कर अपनी बीवी से कहे, “मेरी जान! नाम में कुछ नहीं पड़ा, बस ये दुआ करो कि बच्ची की उम्र दराज़ हो।”

    वो मुख़्तलिफ़ ख़यालात में ग़र्क़ था, लेकिन मालूम नहीं क्यों उसका दिल ग़ैरमामूली तौर पर धड़क रहा था। उसने सोचा कि शायद ये उसकी परागंदा ख़्याली का बाइ’स है। थोड़ी दूर चलने के बाद उस की तबीयत बहुत ज़्यादा मुज़्तरिब हो गई, वो चाहता था कि उड़ कर घर पहुंचे और अपनी बच्ची की पेशानी चूमे।

    बग़ल में लुग़त थी, इसको उसने कई बार देखने की कोशिश की मगर उसका दिल-ओ-दिमाग़ मुतवाज़िन नहीं था। उसने तेज़ तेज़ चलना शुरू कर दिया, मगर थोड़ा फ़ासला तय करने के बाद ही बहुत बुरी तरह हांपने लगा और एक दुकान के थड़े पर बैठ गया। इतने में एक ख़ाली ताँगा आया, उस ने उसको ठहराया और उसमें बैठ कर तांगे वाले से कहा, “चलो मज़ंग ले चलो। लेकिन जल्दी पहुँचाओ, मुझे वहां एक बड़ा ज़रूरी काम है।”

    मगर घोड़ा बहुत ही सुस्त रफ़्तार था या शायद ज़ाहिद को ऐसा महसूस हुआ कि उसको उजलत थी। वो बर्क़ रफ़्तारी से घर पहुंचना चाहता था।

    उसने कई मर्तबा तांगे वाले से सख़्त सुस्त अलफ़ाज़ कहे जो वो बर्दाश्त करता गया। आख़िर जब उस की बर्दाश्त का पैमाना लबरेज़ हो गया तो उसने ज़ाहिद को तांगे से उतार दिया। हाइकोर्ट के क़रीब, उसने ज़ाहिद से किराया भी तलब किया।

    ज़ाहिद और ज़्यादा परेशान हुआ, वो जल्द घर पहुंचना चाहता था, वो कुछ देर चौक में खड़ा रहा। इतने में एक पिशावरी ताँगा आया, उसमें बैठ कर वो मज़ंग पहुंचा। किराया अदा किया और घर में दाख़िल हुआ।

    क्या देखता है कि सहन में कई औरतें खड़ी हैं जो ग़ालिबन हमसाई थीं। वो दरवाज़े के पास रुक गया एक औरत दूसरी औरत से कह रही थी, “मुश्किल ही से बचेगी बेचारी... तशन्नुज के ये दौरे बड़े ख़तरनाक हैं।”

    ज़ाहिद उन औरतों की परवाह करते हुए दीवानावार अंदर भागा और उसके कमरे में पहुंचा जहां वो और उसकी बीवी रहते थे। अंदर दाख़िल होते ही उसने अपनी बीवी की फ़लक शिगाफ़ चीख़ सुनी।

    उसकी बिटिया दम तोड़ चुकी थी और उसकी बीवी बेहोश पड़ी थी। ज़ाहिद ने अपना सर पीटना शुरू कर दिया। हमसाईयां पर्दे को भूल कर बेइख़्तियार अंदर चली आईं और ज़ाहिद को उस कमरे से बाहर निकाल दिया।

    एक हमसाई के शौहर के पास मोटर थी, वो एक डाक्टर ले आया। उसने ज़ाहिद की बीवी को एक दो इंजेक्शन लगाए जिनसे वो होश में गई।

    ज़ाहिद एक ऐसे आलम में था कि उसके सोचने-समझने की तमाम क़ुव्वतें मुअ’त्तल हो गई थीं। वो सहन में एक कुर्सी पर बैठा बग़ल में लुग़त दबाये ख़ला में देख रहा था जैसे वो अपनी बच्ची के लिए कोई नाम तलाश करने में मह्व है।

    बच्ची को दफ़नाने का वक़्त आया तो ज़ाहिद बेहोश हो गया। उसने कोई आँसू बहाया। कफ़न में पड़ी बच्ची को उठाया और अपने दोस्तों और हमसायों के हमराह क़ब्रिस्तान रवाना हो गया। वहां क़ब्र पहले ही से तैयार करा ली गई थी। उसमें उसने ख़ुद उसे लिटाया और उसके साथ लुग़त रख दी।

    लोगों ने समझा क़ुरआन मजीद है। उन्हें बड़ी हैरत हुई कि मुरदों के साथ क़ुरआन कौन दफ़न करता है, ये तो सरासर कुफ्र है, लेकिन उनमें से किसी ने भी ज़ाहिद से इसके मुतअ’ल्लिक़ कुछ कहा बस आपस में खुसर फुसर करते रहे।

    बच्ची को दफ़ना कर जब घर आया तो उसे मालूम हुआ कि उसकी बीवी को बहुत तेज़ बुख़ार है सरसाम की कैफ़ियत है।

    फ़ौरन डाक्टर को बुलाया गया। उसने अच्छी तरह देखा और ज़ाहिद से कहा, “हालत बहुत नाज़ुक है, मैं ईलाज तजवीज़ किए देता हूँ लेकिन मैं सेहत की बहाली के मुतअ’ल्लिक़ कुछ नहीं कह सकता।”

    ज़ाहिद को ऐसा महसूस हुआ कि उसपर बिजली आन गिरी है लेकिन उसने सँभल कर डाक्टर से पूछा, “तकलीफ़ क्या है?”

    डाक्टर ने जवाब दिया, “बहुत सी तकलीफें हैं... एक तो ये कि इन्हें बहुत सदमा पहुंचा, दूसरी ये कि इनका दिल बहुत कमज़ोर है, तीसरी ये कि उन्हें एक सौ पाँच डिग्री बुख़ार है।”

    डाक्टर ने चंद टीके तजवीज़ किए, दो नुस्खे़ पिलाने वाली दवाओं के लिखे और चला गया।

    ज़ाहिद फ़ौरन ये सब चीज़ें ले आया, टीके लगाए, दवाएं बड़ी मुश्किल से हलक़ में टपकाई गईं। लेकिन मरीज़ा की हालत बेहतर हुई।

    दस-पंद्रह रोज़ के बाद उसे थोड़ा सा होश आया, हिज़यानी कैफ़ियत भी दूर हो गई। ज़ाहिद ने इत्मिनान का सांस लिया। उसकी प्यारी हसीन बीवी ने उसे बुलाया और बड़ी नहीफ़ आवाज़ में कहा, “मेरा अब आख़िरी वक़्त गया है... मैं चंद घड़ियों की मेहमान हूँ।”

    ज़ाहिद की आँखों में आँसू गए, “कैसी बातें करती हो तुम, तुम्हें ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता अगर कुछ हो गया तो मैं कहाँ ज़िंदा रहूँगा।”

    ज़ाहिद की बीवी ने अपनी बड़ी बड़ी आँखों से उसकी तरफ़ देखा, “ये सब कहने की बातें हैं, मैं मर गई, कल दूसरी जाएगी। ख़ुदा आपकी उम्र दराज़ करे... और... और...”

    उसने हिचकी ली और एक सेकंड के अंदर अंदर उसकी रूह परवाज़ कर गई। ज़ाहिद ने बड़े सब्र-ओ-तहम्मुल से काम लिया। उसके कफ़न-दफ़न से फ़ारिग़ हो कर वो रात को घर से बाहर निकला और रेलवे टाइम टेबल देख कर रेलवे लाईन का रुख़ किया।

    रात को साढ़े नौ बजे के क़रीब एक गाड़ी आती थी, वो मुग़लपुरा की तरफ़ रवाना हो गया ताकि वहां पटरी पर लेट जाये और उसे कोई देख सके। गाड़ी आएगी तो उसका ख़ातमा हो जाएगा। मुझे लंबी उम्र की कोई ख़्वाहिश नहीं... ये जितनी जल्दी मुख़्तसर हो उतना ही अच्छा है, मैं अब और ज़्यादा सदमे बर्दाश्त नहीं कर सकता।

    जब वो रेलवे लाईन के पास पहुंचा तो उसे गाड़ी की तेज़ रोशनी जो इंजन की पेशानी पर होती है दिखाई दी, लेकिन अभी वो दूर ही थी। उसने इंतिज़ार किया कि जब क़रीब आएगी तो वो पटड़ी पर लेट जाएगा।

    थोड़ी देर के बाद गाड़ी क़रीब गई, ज़ाहिद आगे बढ़ा मगर उसने देखा कि एक आदमी कहीं से नुमूदार हुआ और पटड़ी के ऐ’न दरमियान खड़ा हो गया। गाड़ी बड़ी तेज़ रफ़्तार से रही थी और क़रीब था कि वो आदमी उसकी झपट में जाये वो तेज़ी से लपका और उस आदमी को धक्का दे कर पटड़ी के उस तरफ़ गिरा दिया। गाड़ी दनदनाती हुई गुज़र गई।

    उस आदमी से ज़ाहिद ने कहा, “क्या तुम ख़ुदकुशी करना चाहते थे?”

    उसने जवाब दिया, “जी हाँ।”

    “क्यों?”

    “बस, सदमे उठाते उठाते अब जीने को जी नहीं चाहता।”

    ज़ाहिद नासेह बन गया, “भाई मेरे! ज़िंदगी ज़िंदा रहने के लिए है, इसको अच्छी तरह इस्तेमाल करो, ख़ुदकुशी बहुत बड़ी बुज़दिली है। अपनी जान ख़ुद लेना कहाँ की अक़्लमंदी है, उठो अपने सदमों को भूल जाओ। इंसान की ज़िंदगी में सदमे हों तो ख़ुशियों से किया हज़ उठाएगा... चलो मेरे साथ।”

    स्रोत:

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      • प्रकाशन वर्ष: 1955

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