सेराज
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसी नौजवान वेश्या की कहानी है, जो किसी भी ग्राहक को ख़ुद को हाथ नहीं लगाने देती। हालाँकि जब उसका दलाल उसका सौदा किसी से करता है, तो वह ख़ुशी-ख़ुशी उसके साथ चली जाती है, लेकिन जैसे ही ग्राहक उसे कहीं हाथ लगाता है कि अचानक वह उससे झगड़ने लगती है। दलाल उसकी इस हरकत से बहुत परेशान रहता है, पर वह उसे ख़ुद से अलग भी नहीं कर पाता है, क्योंकि वह उससे मोहब्बत करने लगा है। एक दिन वह दलाल को लेकर लाहौर चली जाती है। वहाँ वह उस नौजवान से मिलती है, जो उसे घर से भगाकर एक सराय में अकेला छोड़ गया था।
नागपाड़ा पुलिस चौकी के उस तरफ़ जो छोटा सा बाग़ है। उसके बिल्कुल सामने ईरानी के होटल के बाहर, बिजली के खंबे के साथ लग कर ढूंढ़ो खड़ा था। दिन ढले, मुक़र्ररा वक़्त पर वो यहां आ जाता और सुबह चार बजे तक अपने धंदे में मसरूफ़ रहता।
मालूम नहीं, उसका अस्ल नाम क्या था। मगर सब उसे ढूंढ़ो कहते थे, इस लिहाज़ से तो ये बहुत मुनासिब था कि उसका काम अपने मुवक्किलों के लिए उनकी ख़्वाहिश और पसंद के मुताबिक़ हर नस्ल और हर रंग की लड़कियां ढूंढना था।
ये धंदा वो क़रीब क़रीब दस बरस से कर रहा था। इस दौरान में हज़ारों लड़कियां उसके हाथों से गुज़र चुकी थीं। हर मज़हब की, हर नस्ल की, हर मिज़ाज की।
उसका अड्डा शुरू से यही रहा था। नागपाड़ा पुलिस चौकी के उस तरफ़। बाग़ के बिल्कुल सामने। ईरानी होटल के बाहर बिजली के खंबे के साथ... खंबा उसका निशान बन गया था। बल्कि मुझे तो वो ढूंढ़ो ही मालूम होता था। मैं जब कभी उधर से गुज़रता और मेरी नज़र उस खंबे पर पड़ती, जिस पर जगह जगह चूने और कथ्थे की उंगलियां पोंछी गई थीं तो मुझे ऐसा लगता कि ढूंढ़ो खड़ा है और काले काँडी और सेंके ली सूपारी वाला पान चबा रहा है।
ये खंबा काफ़ी ऊंचा था। ढूंढ़ो भी दराज़क़द था... खंबे के ऊपर बिजली के तारों का एक जाल सा बिछा था। कोई तार दूर तक दौड़ता चला गया था और दूसरे खंबे के तारों के उलझाव में मुदग़म हो गया था। कोई तार किसी बिल्डिंग में और कोई किसी दुकान में चला गया था। ऐसा लगता था कि इस खंबे की पहुंच दूर दूर तक है। वो दूसरे खंबों से मिल कर गोया सारे शहर पर छाया हुआ है।
इस खंबे के साथ टेलीफ़ोन के महकमे ने एक बक्स लगा रखा था जिसके ज़रिये से वक़्तन फ़वक़्तन तारों की दुरुस्ती वग़ैरा की जांच पड़ताल की जाती थी। अक्सर सोचता था कि ढूंढ़ो भी इसी क़िस्म का एक बक्स है जो लोगों की जिन्सी जांच पड़ताल के लिए खंबे के साथ लगा रहता है। क्योंकि उसे आस पास के इलाक़े के इलावा दूर दूर के इलाक़ों के उन तमाम सेठों का पता था जिनको वक़्फ़ों के बाद या हमेशा ही अपनी जिन्सी ख़्वाहिशात के तने हुए या ढीले तार दुरुस्त कराने की ज़रूरत महसूस होती थी।
उसे उन तमाम छोकरियों का भी पता था जो इस धंदे में थीं। वो उनके जिस्म के हर ख़द्द-ओ-ख़ाल से वाक़िफ़ था। उनकी हर नब्ज़ से आश्ना था। कौन किस मिज़ाज की है और किस वक़्त और किस गाहक के लिए मौज़ूं है। उसको इसका बख़ूबी अंदाज़ा था। लेकिन एक सिर्फ़ उसको सिराज के मुतअ’ल्लिक़ अभी तक कोई अंदाज़ा नहीं हुआ था, वो उसकी गहराई तक नहीं पहुंच सका था।
ढूंढ़ो कई बार मुझसे कह चुका था, “साली का मस्तक फिरे ला है.. समझ में नहीं आता मंटो साहब, कैसी छोकरी है... घड़ी में माशा घड़ी में तोला... कभी आग, कभी पानी। हंस रही है, क़हक़हे लगा रही है, लेकिन एक दम रोना शुरू कर देगी। साली की किसी से नहीं बनती... बड़ी झगड़ालू है। हर पसैंजर से लड़ती है। साली से कई बार कह चुका कि देख, अपना मस्तक ठीक कर, वर्ना जा जहां से आई है... अंग पर तेरे कोई कपड़ा नहीं... खाने को तेरे पास डेढ़ीया नहीं... मारा-मारी और धांदली से तो मेरी जान काम नहीं चलेगा, पर वो एक तुख़्म है, किसी की सुनती ही नहीं।”
मैं ने सिराज को एक दो मर्तबा देखा है। बड़ी दुबली-पतली लड़की थी मगर ख़ूबसूरत... उसकी आँखें ज़रूरत से ज़्यादा बड़ी थीं। ऐसा लगता था कि वो उसके बैज़वी चेहरे पर सिर्फ़ अपनी बड़ाई जताने की ख़ातिर छाई हुई हैं। मैंने जब उसको पहली मर्तबा क्लीयर रोड पर देखा था तो मुझे बड़ी उलझन हुई थी। मेरे दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई थी कि उसकी आँखों से कहूं कि भई, तुम थोड़ी देर के लिए ज़रा एक तरफ़ हट जाओ ताकि में सिराज को देख सकूं। लेकिन मेरी इस ख़्वाहिश के बावजूद जो यक़ीनन मेरी आँखों ने उसकी आँखें तक पहुंचा दी होगी, वो इसी तरह उसके सफ़ेद बैज़वी चेहरे पर छाई रहीं।
मुख़्तसर सी थी, मगर इस इख़्तिसार के बावजूद बड़ी जामे’ मालूम होती थी। ऐसा लगता था कि वो एक सुराही है जिसमें एक हजम से ज़्यादा पानी मिली हुई शराब भरने की कोशिश की गई है और नतीजे के तौर पर सय्याल चीज़ दबाव के बाइ’स इधर उधर, तड़प कर बह गई है।
मैंने पानी मिली हुई शराब इसलिए कहा है कि उसमें तल्ख़ी थी, वो जो तेज़-ओ-तुंद शराब की होती है, मगर ऐसा लगता था किसी धोकेबाज़ ने उसमें पानी मिला दिया है, ताकि मिक़दार ज़्यादा हो जाये। मगर सिराज में निसाईयत की जो मिक़दार थी, वैसी की वैसी मौजूद थी और इस झुंझलाहट से जो उसके घने बालों से उसकी तीखी नाक से, उसके भिंचे हुए होंटों से और उसकी उंगलियों से, जो नक़्शा-नविसों की नोकीली और तेज़ तेज़ पेंसिलें मालूम होती थीं, मैंने ये अंदाज़ा लगाया था कि वो हर चीज़ से नाराज़ है। ढूंढ़ो से... उस खंबे से जिसके साथ लग कर वो खड़ा रहता था... उन ग्राहकों से जो उस के लिए लाए जाते थे। अपनी बड़ी बड़ी आँखों से भी जो उसके सफ़ेद बैज़वी चेहरे पर क़ब्ज़ा जमाए रखती थीं।
उसकी पतली पतली, नोकीली उंगलियां जो नक़्शा-नवीसों की पेंसिलों की तरह तेज़ थीं। ऐसा मालूम होता था कि वो उनसे भी नाराज़ है। शायद इसलिए कि जो नक़्शा सिराज बनाना चाहती थी वो नहीं बना सकती थीं।
ये तो एक अफ़साना निगार के तअस्सुरात में जो छोटे से तिल में संग-ए-अस्वद की तमाम सख़्तियां बयान कर सकता है। आप ढूंढ़ो की ज़बानी सिराज के मुतअ’ल्लिक़ सुनिए उसने मुझसे एक दिन कहा, “मंटो साहब, आज साली ने फिर टंटा कर दिया। वो तो जाने किस दिन का सवाब काम आ गया और आपकी दुआ से यूं भी नागपाड़ा चौकी के सब अफ़सर मेहरबान हैं, वर्ना कल ढूंढ़ो अन्दर होता... वो धमाल मचाई कि मैं तो बाप रे बाप कहता रह गया।”
मैंने उससे पूछा, “क्या बात हुई थी?”
“वही जो हुआ करती है... मैंने लाख ला’नत भेजी अपनी हश्त पुश्त पर कि हरामी जब तू उस छोकरी को अच्छी तरह जानता है तो फिर क्यों उंगली लेता है... क्यों उसको निकाल कर लाता है। तेरी माँ लगती है या बहन। मेरी तो कोई अक़ल काम नहीं करती मंटो साहब!”
हम दोनों ईरानी के होटल में बैठे थे। ढूंढ़ो ने कॉफ़ी मिली चाय पिर्च में उंडेली और सड़प सड़प पीने लगा, “अस्ल बात ये है कि साली से मुझे हमदर्दी है।”
मैंने पूछा, “क्यों?”
ढूंढ़ो ने सर को एक झटका दिया, “जाने क्यों... ये साला मालूम हो जाये तो ये रोज़ का टंटा ख़त्म न हो।” फिर उसने एक दम पिर्च में प्याली औंधी करके मुझसे कहा, “आपको मालूम है... अभी तक कुंवारी है।”
यक़ीन मानिए कि मैं एक लहज़े के लिए चकरा गया, “कुंवारी।”
“आपकी जान की क़सम।”
“मैंने जैसे उसको अपनी बात पर नज़र-ए-सानी करने के लिए कहा, “नहीं ढूंढ़ो।”
ढूंढ़ो को मेरा ये शक नागवार मालूम हुआ, “मैं आपसे झूट नहीं कहता मंटो साहब, सोलह आने कुंवारी है, आप मुझसे शर्त लगा लीजिए।”
मैं सिर्फ़ इसी क़दर कह सका, “मगर ऐसा क्यों कर हो सकता है।”
ढूंढ़ो ने बड़े वसूक़ के साथ कहा, “ऐसा क्यों होने को नहीं सकता... सिराज जैसी छोकरी तो इस धंदे में भी रह कर सारी उम्र कुंवारी रह सकती है। साली किसी को हाथ ही नहीं लगाने देती, मुझे उसकी सारी हिस्ट्री मालूम नहीं। इतना जानता हूँ, पंजाबन है... लेमिंगटन रोड पर मेम साहब के पास थी। वहां से निकाली गई कि हर पैसन्ज़र से लड़ती थी। दो-तीन महीने निकल गए कि मडाम के पास दस बीस और छोकरिया थीं... पर मंटो साहब, कोई कब तक किसे खिलाता है? उसने एक दिन तीन कपड़ों में निकाल बाहर किया। यहां से फ़ारस रोड में दूसरी मडाम के पास पहुंची।
वहां भी उसका मस्तक वैसे का वैसा था। एक पैसन्ज़र के काट खाया... दो-तीन महीने यहां गुज़रे... पर साली के मिज़ाज में तो जैसे आग भरी हुई है, अब कौन उसे ठंडा करता फिरे? फिर ख़ुदा आपका भला करे, खेतवाड़ी के एक होटल में रही... पर यहां भी वही धमाल। मैनेजर ने तंग आ कर चलता किया। क्या बताऊं मंटो साहिब। न साली को खाने का होश है न पीने का... कपड़ों में जुएँ पड़ी हैं। सर दो दो महीने से नहीं धोया... चरस के एक दो सिगरेट मिल जाएं कहीं से तो फूंक लेती है या किसी होटल से दूर खड़ी हो कर, फ़िल्मी रिकार्ड सुनती रहती है।”
मेरे लिए ये तफ़सील काफ़ी थी। उसके रद्द-ए-अ’मल से मैं आपको आगाह नहीं करना चाहता कि अफ़साना निगार की हैसियत से ये नामुनासिब है।
मैंने ढूंढ़ो से महज़ सिलसिला-ए-गुफ़्तुगू क़ायम रखने के लिए पूछा, “तुम उसे वापस क्यों नहीं भेज देते। जबकि उसे इस धंदे से कोई दिलचस्पी नहीं... किराया तुम मुझसे ले लो!”
ढूंढ़ो को ये बात भी नागवार मालूम हुई, “मंटो साहब किराए साले की क्या बात है... मैं नहीं दे सकता?”
मैंने टोह लेनी चाही, “फिर उसे वापस क्यों नहीं भेजते?”
ढूंढ़ो कुछ अ’र्से के लिए ख़ामोश हो गया। कान में अड़े हुए सिगरेट का टुकड़ा निकाल कर उसने सुलगाया और धुंए को नाक के दोनों नथुनों से बाहर फेंक कर उसने सिर्फ़ इतना कहा, “मैं नहीं चाहता कि वो जाये।”
मैंने समझा, उलझे हुए धागे का एक सिरा मेरे हाथ में आ गया है, “क्या तुम उससे मोहब्बत करते हो?”
ढूंढ़ो पर इसका शदीद रद्द-ए-अ’मल हुआ, “आप कैसी बातें करते हैं मंटो साहब?” फिर उसने दोनों कान पकड़ कर खींचे, “क़ुरआन की क़सम मेरे दिल में ऐसा पलीद ख़याल कभी नहीं आया, मुझे बस...” वो रुक गया, “मुझे बस, कुछ अच्छी लगती है!”
मैंने बड़ा सही सवाल किया, “क्यों?”
ढूंढ़ो ने भी इसका बड़ा सही जवाब दिया, “इसलिए... इसलिए कि वो दूसरों जैसी नहीं। बाक़ी जितनी हैं, सब पैसे की पीर हैं... हरामी हैं अव्वल दर्जे की... पर ये जो है न... कुछ अ’जीब-ओ-ग़रीब है। निकाल के लाता हूँ तो राज़ी हो जाती है... सौदा हो जाता है... टैक्सी या विक्टोरिया में बैठ जाती है। अब मंटो साहब, पैसन्ज़र साला मौज-शौक़ के लिए आता है, माल पानी ख़र्च करता है... ज़रा दबा के देखता है या वैसे ही हाथ लगा के देखता है, बस धमाल मच जाती है। मारा मारी शुरू कर देती है, आदमी शरीफ़ हो तो भाग जाता है। पिएला हो या मवाली हो तो आफ़त... हर मौक़े पर मुझे पहुंचना पड़ता है, पैसे वापस करने पड़ते हैं और हाथ पैर अलग जोड़ने पड़ते हैं। “क़सम क़ुरआन की, सिर्फ़ सिराज की ख़ातिर और मंटो साहब, आपकी जान की क़सम इसी साली की वजह से मेरा धंदा आधा रह गया है!”
मेरे ज़ेहन ने सिराज का जो उक़बी मंज़र तैयार किया था, मैं उसका ज़िक्र करना नहीं चाहता, लेकिन इतना है कि जो कुछ ढूंढ़ो ने मुझे बताया वो उसके साथ ठीक तौर पर जमता नहीं था।
मैंने एक दिन सोचा कि ढूंढ़ो को बताए बग़ैर सिराज से मिलूं। वो बायकल्ला स्टेशन के पास ही एक निहायत वाहियात जगह में रहती थी। जहां कूड़े करकट के ढेर थे। आस पास का तमाम फुज़्ला था। कारपोरेशन ने यहां ग़रीबों के लिए जस्त के बेशुमार झोंपड़े बना दिए थे। मैं यहां उन बुलंद बाम इमारतों का ज़िक्र करना नहीं चाहता जो इस ग़लाज़तगाह से थोड़ी दूर ईस्तादा थीं। क्योंकि उनका इस अफ़साने से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। दुनिया नाम ही नशेब-ओ-फ़राज़ का है या रिफ़अ’तों और पस्तियों का।
ढूंढ़ो से मुझे उसके झोंपड़े का अता-पता मालूम था। मैं वहां गया, अपने ख़ुशवज़ा कपड़ों को इस माहौल से छुपाए हुए... लेकिन यहां मेरी ज़ात मुतअ’ल्लिक़ नहीं।
बहरहाल मैं वहां गया, झोंपड़े के बाहर एक बकरी बंधी थी। उसने मुझे देखा तो मिम्याई। अंदर से एक बुढ़िया निकली... जैसे पुरानी दास्तानों के कृम-ख़ूर्दा अंबार से कोई कुटनी लाठी टेकती हुई। मैं लौटने ही वाला था कि टाट के जगह जगह से फटे हुए पर्दे के पीछे मुझे दो बड़ी बड़ी आँखें नज़र आईं... बिल्कुल उसी तरह फटी हुई जिस तरह वो टाट का पर्दा था। फिर मैंने सिराज का सफेद बैज़वी चेहरा देखा और मुझे उन ग़ासिब आँखों पर बड़ा ग़ुस्सा आया।
उसने मुझे देख लिया था। मालूम नहीं अंदर क्या काम कर रही थी। फ़ौरन सब छोड़ छाड़ कर बाहर आई। उसने बुढ़िया की तरफ़ कोई तवज्जा न दी और मुझसे कहा, “आप यहां कैसे आए?”
मैं ने मुख़्तसरन कहा, “तुम से मिलना था।”
सिराज ने भी इख़्तिसार ही के साथ कहा, “आओ अंदर!”
मैंने कहा, “नहीं मेरे साथ चलिए।”
इस पर कृरम-ख़ूर्दा दास्तानों की कृरम-ख़ूर्दा कुटनी बड़े दुकानदाराना अंदाज़ में बोली, “दस रुपये होंगे।”
मैंने बटुवा निकाल कर दस रुपये उस बुढ़िया को दे दिए और सिराज से कहा, “आओ सिराज!”
सिराज की बड़ी बड़ी आँखों ने एक लहज़े के लिए मेरी निगाहों को रास्ता दिया कि उसके चेहरे की सड़क पर चंद क़दम चल सकें। मैं एक बार फिर उसी नतीजे पर पहुंचा कि वो ख़ूबसूरत थी... सुकड़ी हुई ख़ूबसूरती। हनूत लगी ख़ूबसूरती। सदियों की महफ़ूज़-ओ-मामून और मदफ़ून की हुई ख़ूबसूरती। मैं ने एक लहज़े के लिए यूं महसूस किया कि मैं मिस्र में हूँ और पुराने दफ़ीनों की खुदाई पर मामूर किया गया हूँ।
मैं ज़्यादा तफ़्सील में नहीं जाना चाहता... सिराज मेरे साथ थी। हम दोनों एक होटल में थे। वो मेरे सामने, अपने ग़लीज़ कपड़ों में मलबूस बैठी थी और उसकी बड़ी बड़ी आँखें उसके बैज़वी चेहरे पर क़ब्ज़ा-ए-मुख़ालिफ़ाना किए थीं। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि उन्होंने सिर्फ़ सिराज के चेहरे ही को नहीं, उसके सारे वजूद को ढाँप लिया है कि मैं उसके किसी रोएँ को भी न देख सकूं।
बुढ़िया ने जो क़ीमत बताई थी, मैंने अदा कर दी थी। इसके इलावा मैंने चालीस रुपये और सिराज को दिए थे। मैं चाहता था कि वो मुझसे भी उसी तरह लड़े-झगड़े, जिस तरह वो दूसरों के साथ लड़ती झगड़ती है। चुनांचे इसी ग़रज़ से मैंने उससे कोई ऐसी बात न की जिससे मोहब्बत और ख़ुलूस की बू आए। उसकी बड़ी बड़ी आँखों से भी मैं ख़ाइफ़ था। वो इतनी बड़ी थीं कि मेरे इलावा मेरे इर्द-गिर्द की सारी दुनिया भी देख सकती थीं।
वो ख़ामोश थी। वाहियात तरीक़े पर उसे छेड़ने के लिए ज़रूरी था कि मेरे जिस्म और ज़ेहन में ग़लत क़िस्म की हरारत हो। चुनांचे मैंने विस्की के चार पैग पिए और उसको आम पैसेंजरों की तरह छेड़ा। उसने कोई मुज़ाहमत न की। मैंने एक ज़बरदस्त फ़ुज़ूल हरकत की। मेरा ख़याल था कि वो बारूद जो उसके अंदर भरी पड़ी है, उसको भक से उड़ाने के लिए ये चिंगारी काफ़ी है। मगर हैरत है कि वो किसी क़दर पुरसुकून हो गई। उठ कर उसने मुझे अपनी बड़ी बड़ी आँखों के फैलाव में समेटते हुए कहा, “चरस का एक सिगरेट मंगवा दो मुझे!”
“शराब पियो!”
“नहीं, चरस का सिगरेट पियूंगी!”
मैंने उसे चरस का सिगरेट मंगवा दिया। उसे ठेट चरसियों के अंदाज़ में पी कर उसने मेरी तरफ़ देखा। उसकी बड़ी बड़ी आँखें अब अपना तसल्लुत छोड़ चुकी थीं... मगर उसी तरह जिस तरह कोई ग़ासिब छोड़ता है। उसका चेहरा मुझे एक उजड़ी हुई, एक बर्बाद शुदा सलतनत नज़र आया, ताख़्त-ओ-ताराज मुल्क, उसका हर ख़त, हर ख़ाल... वीरानी की एक लकीर थी।
मगर ये वीरानी क्या थी? क्यों थी? बा’ज़ औक़ात ऐसा भी होता है कि आबादियां ही वीरानों का बाइ’स होती हैं। क्या वो इसी क़िस्म की आबादी थी जो शुरू होने के बाद किसी हमला आवर के बाइ’स अधूरी रह गई थी और आहिस्ता आहिस्ता उसकी दीवारें जो अभी गज़ भर भी ऊपर नहीं उठी थीं खंडर बन गई थीं।
मैं चक्कर में था, लेकिन आपको मैं इस चक्कर में नहीं डालना चाहता। मैं ने क्या सोचा, क्या नतीजा बरामद किया। इससे आप को क्या मतलब?
सिराज कुंवारी थी या नहीं। मैं इसके मुतअ’ल्लिक़ जानना नहीं चाहता था। सुलफ़े के धुंए में, अलबत्ता उसकी मह्ज़ून-ओ-मख़मूर आँखों में मुझे एक ऐसी झलक नज़र आई थी जिसको मेरा क़लम भी बयान नहीं कर सकता।
मैंने उससे बातें करना चाहीं मगर उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैंने चाहा कि वो मुझसे लड़े झगड़े, मगर यहां भी उसने मुझे नाउम्मीद किया।
मैं उसे घर छोड़ आया।
ढूंढ़ो को जब मेरे इस खु़फ़िया सिलसिले का पता चला तो वो बहुत नाराज़ हुआ। उसके दोस्ताना और ताजिराना जज़्बात दोनों बहुत बुरी तरह मजरूह हुए थे। उसने मुझे सफ़ाई का मौक़ा न दिया। सिर्फ़ इतना कहा, “मंटो साहब, आपसे ये उम्मीद न थी!” और ये कह कर वो खंबे से हट कर एक तरफ़ चला गया।
अ’जीब बात है कि दूसरे रोज़ शाम को वक़्त-ए-मुक़र्ररा पर वो मुझे अपने अड्डे पर नज़र न आया। मैं समझा शायद बीमार है। मगर उससे अगले रोज़ भी वो मौजूद नहीं था।
एक हफ़्ता गुज़र गया। वहां से मेरा सुबह-शाम आना जाना होता था। मैं जब उस खंबे को देखता। मुझे ढूंढ़ो याद आता। मैं बायकल्ला स्टेशन के पास ही जो वाहियात जगह थी वहां भी गया। ये देखने के लिए सिराज कहाँ है? मगर वहां अब सिर्फ़ वो कृरम-ख़ूर्दा कुटनी रहती थी। मैंने उससे सिराज के मुतअ’ल्लिक़ पूछा तो वो पोपली मुस्कुराहट में लाखों बरस की पुरानी जिन्सी करवटें बदल कर बोली, “वो गई... और हैं... मंगवाऊँ!”
मैंने सोचा, इसका क्या मतलब है। ढूंढ़ो और सिराज दोनों ग़ायब हैं और वो भी मेरी उस खु़फ़िया मुलाक़ात के बाद... लेकिन मैं उस मुलाक़ात के मुतअ’ल्लिक़ इतना मुतरद्दिद नहीं था। यहां फिर मैं अपने ख़यालात आप पर ज़ाहिर नहीं करना चाहता लेकिन मुझे ये हैरत ज़रूर थी कि वो दोनों ग़ायब कहाँ हो गए। उनमें मोहब्बत की क़िस्म की कोई चीज़ नहीं थी। ढूंढ़ो ऐसी चीज़ों से बालातर था। उस की बीवी थी बच्चे थे और वो उनसे बेहद मोहब्बत करता था, फिर ये सिलसिला क्या था कि दोनों ब-यक-वक़्त ग़ायब थे।
मैंने सोचा, हो सकता है कि अचानक ढूंढ़ो के दिमाग़ में ये ख़याल आ गया हो कि सिराज को वापस घर जाना चाहिए। उसके मुतअ’ल्लिक़ वो पहले फ़ैसला नहीं कर सका था, पर अब अचानक कर लिया हो।
ग़ालिबन एक महीना गुज़र गया।
एक शाम अचानक मुझे ढूंढ़ो नज़र आया। उसी खंबे के साथ, मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे बड़ी देर करंट फ़ेल रहने के बाद एक दम वापस आ गया है, उस खंबे में जान पड़ गई। टेलीफ़ोन के डिब्बे में भी... चारों तरफ़, ऊपर तारों के फैले हुए जाल, ऐसा लगता था आपस में सरगोशियां कर रहे हैं।
मैं उसके पास से गुज़रा, उसने मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुराया।
हम दोनों ईरानी के होटल में थे। मैंने उससे कुछ न पूछा। उसने अपने लिए कॉफ़ी मिली चाय और मेरे लिए सादा चाय मंगवाई और पहलू बदल कर उसने ऐसी नशिस्त क़ायम की कि जैसे वो मुझे कोई बहुत बड़ी बात सुनाने वाला है, मगर उसने सिर्फ़ इतना कहा, “और सुनाओ मंटो साहब।”
“क्या सुनाएँ ढूंढ़ो, बस गुज़र रही है।”
ढूंढ़ो मुस्कुराया, “ठीक कहा आपने... बस गुज़र रही है और गुज़रती जाएगी... लेकिन ये साला गुज़रते रहना या गुज़रना भी अ’जीब चीज़ है। सच पूछिए तो इस दुनिया में हर चीज़ अ’जीब है।”
मैंने सिर्फ़ इतना कहा, “तुम ठीक कहते हो ढूंढ़ो।”
चाय आई और हम दोनों ने पीना शुरू की। ढूंढ़ो ने पिर्च में अपनी कॉफ़ी मिली चाय उंडेली और मुझ से कहा, “मंटो साहब, उसने मुझे बता दी थी सारी बात... कहती थी, वो सेठ जो तुम्हारा दोस्त है, उस का मस्तक फिरे ला है।”
मैं हंसा, “क्यों?”
“बोली,मुझे होटल ले गया... इतने रुपये दिए, पर सेठों वाली कोई बात न की।”
मैं अपने अनाड़ीपन पर बहुत ख़फ़ीफ़ हुआ, “वो क़िस्सा ही कुछ ऐसा था ढूंढ़ो”
अब ढूंढ़ो पेट भर के हंसा, “मैं जानता हूँ, मुझे माफ़ कर देना कि मैं उस रोज़ तुमसे नाराज़ हो गया था।” उसके अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू में अनजाने में बेतकल्लुफ़ी पैदा हो गई, “पर अब वो क़िस्सा ख़लास हो गया है!”
“कौन सा क़िस्सा?”
“उस साली सिराज का... और किसका?”
मैंने पूछा, “क्या हुआ?”
ढूंढ़ो गटकने लगा, “जिस रोज़ आपके साथ गई, वापस आ कर मुझसे कहने लगी... मेरे पास चालीस रुपये हैं, चलो मुझे लाहौर ले चलो। मैं बोला साली, ये एक दम तेरे सर पर क्या भूत सवार हुआ... बोली, नहीं। चल ढूंढ़ो, तुझे मेरी क़सम... और मंटो साहब, आप जानते हैं... मैं साली की कोई बात नहीं टाल सकता कि मुझे अच्छी लगती है। मैंने कहा चल, सो टिकट कटा के हम दोनों गाड़ियों में सवार हुए।
“लाहौर पहुंच कर एक होटल में ठहरे... मुझसे बोली, ढूंढ़ो, एक बुर्ख़ा ला दे। मैं ले आया... उसे पहन कर वो लगी सड़क सड़क और गली गली घूमने। कई दिन गुज़र गए... मैं बोला, ये भी अच्छी रही ढूंढ़ो। सिराज साली का मस्तक तो फिरे ला था। साला तेरा भी भेजा फिर गया जो तू इतनी दूर उसके साथ आ गया। मंटो साहिब, आख़िर एक दिन उसने टांगा रुकवाया और एक आदमी की तरफ़ इशारा करके मुझसे कहने लगी, ढूंढ़ो... उस आदमी को मेरे पास ले आ। मैं चलती हूँ वापस सराय में। मेरी अक़ल जवाब दे गई। मैं टांगे से उतरा तो वो ग़ायब, अब मैं उस आदमी के पीछे पीछे। आपकी दुआ से और अल्लाह तआ’ला की मेहरबानी से मैं आदमी आदमी को पहचानता हूँ। दो बातें कीं और मैं ताड़ गया कि मौज-शौक़ करने वाला है।
मैं बोला, बंबई का ख़ास माल है। बोला, अभी चलो, मैं बोला, नहीं, पहले माल पानी दिखाओ। उसने इतने सारे नोट दिखाए। मैं दिल में बोला, चलो ढूंढ़ो, यहां भी अपना धंदा चलता रहे... पर मेरी समझ में ये बात नहीं आई थी कि सिराज साली ने सारे लाहौर में इसी को क्यों चुना? मैंने कहा, चलता है... टांगा लिया और सीधा सराय में। सिराज को ख़बर की, वो बोली, अभी ठहर। मैं ठहर गया, थोड़ी देर के बाद उस आदमी को जो अच्छी शक्ल का था अंदर ले गया। सिराज को देखते ही वो साला यूं बिदका जैसे घोड़ा। सिराज ने उसको पकड़ लिया।”
ढूंढ़ो ने यहां पहुंच कर प्याली से अपनी ठंडी कॉफ़ी मिली चाय एक ही ज़र्रे में ख़त्म की और बीड़ी सुलगाने लगा।
मैंने उससे कहा, “सिराज ने उसको पकड़ लिया।”
ढूंढ़ो ने बुलंद आवाज़ में कहा, “हाँ जी... पकड़ लिया उस साले को... कहने लगी। अब तू कहाँ जाता है, मेरा घर छुड़ा कर तू मुझे अपने साथ किस लिए लाया था? मैं तुझसे मोहब्बत करती थी, तू ने भी मुझसे यही कहा था कि तू मुझसे मोहब्बत करता है... पर जब मैं अपना घर बार, अपने माँ-बाप छोड़ कर तेरे साथ भाग निकली और अमृतसर से हम दोनों यहां आए... इसी सराय में आ कर ठहरे तो रात ही रात तू भाग गया, मुझे अकेली छोड़ कर। किस लिए लाया था तू मुझे यहां, किस लिए भगाया था तू ने मुझे?
मैं हर चीज़ के लिए तैयार थी, पर तू मेरी सारी तैयारियां छोड़ कर भाग गया। आ... अब मैंने तुम्हें बुलाया है, मेरी मोहब्बत वैसी की वैसी क़ायम है। आ... और मंटो साहब, वो उसके साथ लिपट गई। उस साले के आँसू टपकने लगे... रो रो कर माफियां मांगने लगा। मुझसे ग़लती हुई, मैं डर गया था, मैं अब कभी तुमसे अलाहिदा नहीं हूँगा। क़स्में खाता रहा... जाने क्या बकता रहा। सिराज ने मुझे इशारा किया, मैं बाहर चला गया। सुबह हुई तो मैं बाहर खाट पर सो रहा था। सिराज ने मुझे जगाया और कहा, चलो ढूंढ़ो, मैं बोला, कहाँ? बोली, वापस बंबई, मैं बोला,वो साला कहाँ है? सिराज ने कहा, सो रहा है... मैं उस पर अपना बुर्ख़ा डाल आई हूँ।”
ढूंढ़ो ने अपने लिए दूसरी कॉफ़ी मिली चाय का आर्डर दिया तो सिराज अंदर दाख़िल हुई। उसका सफ़ेद बैज़वी चेहरा निखरा हुआ था और उसपर उसकी बड़ी बड़ी आँखें दो गिरे हुए सिगनल मालूम होती थीं।
- पुस्तक : سڑک کے کنارے
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