गिल है आरिज़ तो क़द्द-ए-यार दरख़्त
कब हो ऐसा बहार-दार दरख़्त
तुम लगाते चलो अश्जार जिधर से गुज़रो
उस के साए में जो बैठेगा दुआ ही देगा
शरीफ़े के दरख़्तों में छुपा घर देख लेता हूँ
मैं आँखें बंद कर के घर के अंदर देख लेता हूँ
उस पेड़ के हर फल में मिरा हक़ ज़रा रखना
जिस नन्हे से पौदे को शजर मैं ने किया है
दिल के आँगन में उभरता है तिरा अक्स-ए-जमील
चाँदनी रात में हो रात की रानी जैसे