दिवाकर राही के शेर
अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में
जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में
वक़्त बर्बाद करने वालों को
वक़्त बर्बाद कर के छोड़ेगा
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अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
किनारों ने डुबोया है मुझे इस बात का ग़म है
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ग़ुस्से में बरहमी में ग़ज़ब में इताब में
ख़ुद आ गए हैं वो मिरे ख़त के जवाब में
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इस से पहले कि लोग पहचानें
ख़ुद को पहचान लो तो बेहतर है
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वक़ार-ए-ख़ून-ए-शहीदान-ए-कर्बला की क़सम
यज़ीद मोरचा जीता है जंग हारा है
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इस इंतिज़ार में बैठे हैं उन की महफ़िल में
कि वो निगाह उठाएँ तो हम सलाम करें
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बात हक़ है तो फिर क़ुबूल करो
ये न देखो कि कौन कहता है
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इस दौर-ए-तरक़्क़ी के अंदाज़ निराले हैं
ज़ेहनों में अँधेरे हैं सड़कों पे उजाले हैं
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सोचने की ये बात है 'राही'
सोचते ही रहे तो क्या होगा
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वक़्त को बस गुज़ार लेना ही
दोस्तो कोई ज़िंदगानी है
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अगर ऐ नाख़ुदा तूफ़ान से लड़ने का दम-ख़म है
इधर कश्ती न ले आना यहाँ पानी बहुत कम है
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सवाल ये है कि इस पुर-फ़रेब दुनिया में
ख़ुदा के नाम पे किस किस का एहतिराम करें
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अबस इल्ज़ाम मत दो मुश्किलात-ए-राह को 'राही'
तुम्हारे ही इरादे में कमी मालूम होती है
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ऐन-फ़ितरत है कि जिस शाख़ पे फल आएँगे
इंकिसारी से वही शाख़ लचक जाएगी
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बहुत आसान है दो घूँट पी लेना तो ऐ 'राही'
बड़ी मुश्किल से आते हैं मगर आदाब-ए-मय-ख़ाना
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