क़ब्र पर शेर

क़ब्र की तंगी, तारीकी

और उस से वाबस्ता बहुत से भयानक और तकलीफ़-दह तसव्वुरात को शायरी में ख़ूब बर्ता गया है। ये अशआर ज़िदगी में रुक कर सोचने और अपना मुहासिबा करने पर मजबूर करते हैं। हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़े और ज़िंदगी की हक़ीक़तों पर ग़ौर कीजिए।

शुक्रिया क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया

अब अकेले ही चले जाएँगे इस मंज़िल से हम

क़मर जलालवी

मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं

मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ

मुनीर नियाज़ी

चराग़ उस ने बुझा भी दिया जला भी दिया

ये मेरी क़ब्र पे मंज़र नया दिखा भी दिया

बशीरुद्दीन अहमद देहलवी

फिर उसी क़ब्र के बराबर से

ज़िंदा रहने का रास्ता निकला

फ़हमी बदायूनी

मसरूफ़ गोरकन को भी शायद पता नहीं

वो ख़ुद खड़ा हुआ है क़ज़ा की क़तार में

निदा फ़ाज़ली

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