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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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Muneer Niyazi's Photo'

मुनीर नियाज़ी

1928 - 2006 | लाहौर, पाकिस्तान

पाकिस्तान के आग्रणी आधुनिक शायरों में विख्यात/फि़ल्मों के लिए गीत भी लिखे

पाकिस्तान के आग्रणी आधुनिक शायरों में विख्यात/फि़ल्मों के लिए गीत भी लिखे

मुनीर नियाज़ी के शेर

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एक दश्त-ए-ला-मकाँ फैला है मेरे हर तरफ़

दश्त से निकलूँ तो जा कर किन ठिकानों में रहूँ

कटी है जिस के ख़यालों में उम्र अपनी 'मुनीर'

मज़ा तो जब है कि उस शोख़ को पता ही हो

रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर

इन रोज़ शब में मुझ को ये फ़ुर्सत नहीं मिली

लाई है अब उड़ा के गए मौसमों की बास

बरखा की रुत का क़हर है और हम हैं दोस्तो

वो जिस को मैं समझता रहा कामयाब दिन

वो दिन था मेरी उम्र का सब से ख़राब दिन

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते

सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते

अपनी ही तेग़-ए-अदा से आप घायल हो गया

चाँद ने पानी में देखा और पागल हो गया

'मुनीर' इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को

हमेशा एक सा होना नहीं है

ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं

तू ने मुझ को खो दिया मैं ने तुझे खोया नहीं

उस को भी तो जा कर देखो उस का हाल भी मुझ सा है

चुप चुप रह कर दुख सहने से तो इंसाँ मर जाता है

बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा

ख़ून की इक बूँद काग़ज़ को रंगीला कर गई

डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में

ज़र के ज़ोर से ज़िंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में

लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में

ख़याल तुझ को दिल-ए-बे-क़रार किस का था

है 'मुनीर' तेरी निगाह में

कोई बात गहरे मलाल की

था 'मुनीर' आग़ाज़ ही से रास्ता अपना ग़लत

इस का अंदाज़ा सफ़र की राइगानी से हुआ

वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर'

आज कल होता गया और दिन हवा होते गए

घटा देख कर ख़ुश हुईं लड़कियाँ

छतों पर खिले फूल बरसात के

ग़ैर से नफ़अत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई

जितने हम थे हम ने ख़ुद को उस से आधा कर लिया

मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद

पर मुझे इस मुल्क में कमज़ोर-तर उस ने किया

कोयलें कूकीं बहुत दीवार-ए-गुलशन की तरफ़

चाँद दमका हौज़ के शफ़्फ़ाफ़ पानी में बहुत

गई याद शाम ढलते ही

बुझ गया दिल चराग़ जलते ही

दिन भर जो सूरज के डर से गलियों में छुप रहते हैं

शाम आते ही आँखों में वो रंग पुराने जाते हैं

अपने घरों से दूर बनों में फिरते हुए आवारा लोगो

कभी कभी जब वक़्त मिले तो अपने घर भी जाते रहना

कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया

मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था

गली के बाहर तमाम मंज़र बदल गए थे

जो साया-ए-कू-ए-यार उतरा तो मैं ने देखा

क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया

गुल-ए-हिना को हथेली में थाम कर बैठा

देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं

जिस शहर में भटक के जिधर जाए आदमी

तू भी जैसे बदल सा जाता है

अक्स-ए-दीवार के बदलते ही

कुछ वक़्त चाहते थे कि सोचें तिरे लिए

तू ने वो वक़्त हम को ज़माने नहीं दिया

कुछ दिन के बा'द उस से जुदा हो गए 'मुनीर'

उस बेवफ़ा से अपनी तबीअत नहीं मिली

मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये

ये कैसा जब्र है मैं जिस के इख़्तियार में हूँ

तन्हा उजाड़ बुर्जों में फिरता है तू 'मुनीर'

वो ज़र-फ़िशानियाँ तिरे रुख़ की किधर गईं

कोई तो है 'मुनीर' जिसे फ़िक्र है मिरी

ये जान कर अजीब सी हैरत हुई मुझे

रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी

गूँज उट्ठे बाम-ओ-दर मेरी सदा के सामने

मकान-ए-ज़र लब-ए-गोया हद-ए-सिपेह्र-ओ-ज़मीं

दिखाई देता है सब कुछ यहाँ ख़ुदा के सिवा

शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही

रात बादल इस तरह आए कि मैं तो डर गया

मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं

मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ

मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी 'मुनीर'

पर्दा सा कोई मेरे तिरे दरमियाँ तो है

किसी अकेली शाम की चुप में

गीत पुराने गा के देखो

तेज़ थी इतनी कि सारा शहर सूना कर गई

देर तक बैठा रहा मैं उस हवा के सामने

जिन के होने से हम भी हैं दिल

शहर में हैं वो सूरतें बाक़ी

मिलती नहीं पनाह हमें जिस ज़मीन पर

इक हश्र उस ज़मीं पे उठा देना चाहिए

इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को

मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैं ने देखा

शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान

कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख

सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'

रेल की सीटी बजी तो दिल लहू से भर गया

नींद का हल्का गुलाबी सा ख़ुमार आँखों में था

यूँ लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं

वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया

रेशमी मल्बूस की ख़ुश्बू से जादू कर गया

खड़ा हूँ ज़ेर-ए-फ़लक गुम्बद-ए-सदा में 'मुनीर'

कि जैसे हाथ उठा हो कोई दुआ के लिए

ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे

सवाल का जवाब भी सवाल में मिला मुझे

सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं

उन उम्मतों का ज़िक्र जो रस्तों में मर गईं

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