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मुनीर नियाज़ी के शेर
एक दश्त-ए-ला-मकाँ फैला है मेरे हर तरफ़
दश्त से निकलूँ तो जा कर किन ठिकानों में रहूँ
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कटी है जिस के ख़यालों में उम्र अपनी 'मुनीर'
मज़ा तो जब है कि उस शोख़ को पता ही न हो
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रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
इन रोज़ ओ शब में मुझ को ये फ़ुर्सत नहीं मिली
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लाई है अब उड़ा के गए मौसमों की बास
बरखा की रुत का क़हर है और हम हैं दोस्तो
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वो जिस को मैं समझता रहा कामयाब दिन
वो दिन था मेरी उम्र का सब से ख़राब दिन
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किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते
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अपनी ही तेग़-ए-अदा से आप घायल हो गया
चाँद ने पानी में देखा और पागल हो गया
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टैग : हुस्न
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'मुनीर' इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को
हमेशा एक सा होना नहीं है
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टैग : ज़िंदगी
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ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं
तू ने मुझ को खो दिया मैं ने तुझे खोया नहीं
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उस को भी तो जा कर देखो उस का हाल भी मुझ सा है
चुप चुप रह कर दुख सहने से तो इंसाँ मर जाता है
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बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा
ख़ून की इक बूँद काग़ज़ को रंगीला कर गई
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डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में
ज़र के ज़ोर से ज़िंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में
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लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में
ख़याल तुझ को दिल-ए-बे-क़रार किस का था
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है 'मुनीर' तेरी निगाह में
कोई बात गहरे मलाल की
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था 'मुनीर' आग़ाज़ ही से रास्ता अपना ग़लत
इस का अंदाज़ा सफ़र की राइगानी से हुआ
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वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर'
आज कल होता गया और दिन हवा होते गए
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टैग : वक़्त
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घटा देख कर ख़ुश हुईं लड़कियाँ
छतों पर खिले फूल बरसात के
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टैग : बारिश
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ग़ैर से नफ़अत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
जितने हम थे हम ने ख़ुद को उस से आधा कर लिया
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मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
पर मुझे इस मुल्क में कमज़ोर-तर उस ने किया
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टैग : हिजरत
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कोयलें कूकीं बहुत दीवार-ए-गुलशन की तरफ़
चाँद दमका हौज़ के शफ़्फ़ाफ़ पानी में बहुत
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आ गई याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही
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टैग : याद
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दिन भर जो सूरज के डर से गलियों में छुप रहते हैं
शाम आते ही आँखों में वो रंग पुराने आ जाते हैं
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अपने घरों से दूर बनों में फिरते हुए आवारा लोगो
कभी कभी जब वक़्त मिले तो अपने घर भी जाते रहना
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कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया
मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था
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गली के बाहर तमाम मंज़र बदल गए थे
जो साया-ए-कू-ए-यार उतरा तो मैं ने देखा
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क़बा-ए-ज़र्द पहन कर वो बज़्म में आया
गुल-ए-हिना को हथेली में थाम कर बैठा
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देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं
जिस शहर में भटक के जिधर जाए आदमी
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तू भी जैसे बदल सा जाता है
अक्स-ए-दीवार के बदलते ही
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कुछ वक़्त चाहते थे कि सोचें तिरे लिए
तू ने वो वक़्त हम को ज़माने नहीं दिया
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कुछ दिन के बा'द उस से जुदा हो गए 'मुनीर'
उस बेवफ़ा से अपनी तबीअत नहीं मिली
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मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये
ये कैसा जब्र है मैं जिस के इख़्तियार में हूँ
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टैग : जब्र
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तन्हा उजाड़ बुर्जों में फिरता है तू 'मुनीर'
वो ज़र-फ़िशानियाँ तिरे रुख़ की किधर गईं
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कोई तो है 'मुनीर' जिसे फ़िक्र है मिरी
ये जान कर अजीब सी हैरत हुई मुझे
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रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी
गूँज उट्ठे बाम-ओ-दर मेरी सदा के सामने
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टैग : आवाज़
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मकान-ए-ज़र लब-ए-गोया हद-ए-सिपेह्र-ओ-ज़मीं
दिखाई देता है सब कुछ यहाँ ख़ुदा के सिवा
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शहर की गलियों में गहरी तीरगी गिर्यां रही
रात बादल इस तरह आए कि मैं तो डर गया
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मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ
मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
पर्दा सा कोई मेरे तिरे दरमियाँ तो है
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किसी अकेली शाम की चुप में
गीत पुराने गा के देखो
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तेज़ थी इतनी कि सारा शहर सूना कर गई
देर तक बैठा रहा मैं उस हवा के सामने
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जिन के होने से हम भी हैं ऐ दिल
शहर में हैं वो सूरतें बाक़ी
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मिलती नहीं पनाह हमें जिस ज़मीन पर
इक हश्र उस ज़मीं पे उठा देना चाहिए
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इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को
मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैं ने देखा
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टैग : ज़र्बुल-मसल
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शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान
कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख
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सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'
रेल की सीटी बजी तो दिल लहू से भर गया
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नींद का हल्का गुलाबी सा ख़ुमार आँखों में था
यूँ लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं
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वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया
रेशमी मल्बूस की ख़ुश्बू से जादू कर गया
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खड़ा हूँ ज़ेर-ए-फ़लक गुम्बद-ए-सदा में 'मुनीर'
कि जैसे हाथ उठा हो कोई दुआ के लिए
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ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे
सवाल का जवाब भी सवाल में मिला मुझे
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सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
उन उम्मतों का ज़िक्र जो रस्तों में मर गईं
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