हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं
तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं
वो कौन था जो दिन के उजाले में खो गया
ये चाँद किस को ढूँडने निकला है शाम से
इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह
ख़ुद बनाता है जहाँ में आदमी अपनी जगह
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टैग : प्रेरणादायक
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
आदमी हूँ सो बहुत ख़्वाब हैं मेरे अंदर
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी
बंदा जहाँ ख़ुदा को ख़ुदा मानता नहीं
गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया
जानवर आदमी फ़रिश्ता ख़ुदा
आदमी की हैं सैकड़ों क़िस्में
सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया
भीड़ तन्हाइयों का मेला है
आदमी आदमी अकेला है
राह में बैठा हूँ मैं तुम संग-ए-रह समझो मुझे
आदमी बन जाऊँगा कुछ ठोकरें खाने के बाद
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया
मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर
मैं आज अपनी ज़ात से घबरा के पी गया
मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
आदमी इस दौर में ख़ुद्दार हो सकता नहीं
फ़रिश्ता है तो तक़द्दुस तुझे मुबारक हो
हम आदमी हैं तो ऐब-ओ-हुनर भी रखते हैं
आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो
इक तवज्जोह चाहिए इंसाँ को इंसाँ की तरफ़
मैं आख़िर आदमी हूँ कोई लग़्ज़िश हो ही जाती है
मगर इक वस्फ़ है मुझ में दिल-आज़ारी नहीं करता
ज़िंदगी से ज़िंदगी रूठी रही
आदमी से आदमी बरहम रहा
ख़ुश-हाल घर शरीफ़ तबीअत सभी का दोस्त
वो शख़्स था ज़ियादा मगर आदमी था कम
आदमी क्या वो न समझे जो सुख़न की क़द्र को
नुत्क़ ने हैवाँ से मुश्त-ए-ख़ाक को इंसाँ किया
अजीब शख़्स था ख़ुद अपने दुख बनाता था
दिल-ओ-दिमाग़ पे कुछ दिन असर रहा उस का
ख़ुदा बदल न सका आदमी को आज भी 'होश'
और अब तक आदमी ने सैकड़ों ख़ुदा बदले
मिलता है आदमी ही मुझे हर मक़ाम पर
और मैं हूँ आदमी की तलब से भरा हुआ
रूप रंग मिलता है ख़द्द-ओ-ख़ाल मिलते हैं
आदमी नहीं मिलता आदमी के पैकर में
इतना बे-आसरा नहीं हूँ मैं
आदमी हूँ ख़ुदा नहीं हूँ मैं
टटोलो परख लो चलो आज़मा लो
ख़ुदा की क़सम बा-ख़ुदा आदमी हूँ
हुस्न-ए-इख़्लास ही नहीं वर्ना
आदमी आदमी तो आज भी है
अभी फ़र्क़ है आदमी आदमी में
अभी दूर है आदमी आदमी से
आदमी हूँ वस्फ़-ए-पैग़म्बर न माँग
मुझ से मेरे दोस्त मेरा सर न माँग
मिरा ग़ज़ाल कि वहशत थी जिस को साए से
लिपट गया मिरे सीने से आदमी की तरह
रू-ए-ज़मीं पे चार अरब मेरे अक्स हैं
इन में से मैं भी एक हूँ चाहे कहीं हूँ मैं
ऐ ग़ुबार-ए-ख़्वाहिश-ए-यक-उम्र अपनी राह ले
इस गली में तुझ से पहले इक जहाँ मौजूद है