बुत पर शेर
बुत उर्दू क्लासिकी शायरी
की मूल शब्दावली में से एक है । इसका शाब्दिक अर्थ मूर्ति या मूरत होता है। उर्दू शायरी में ये महबूब / प्रेमिका का रूपक है । जिस तरह बुत कुछ सुनता है न उस पर किसी बात का कोई असर होता है । ठीक उसी तरह उर्दू शायरी का महबूब भी अपने प्रेमी से बे-परवा होता है । आशिक़ की फ़रियाद, उसका रोना, गिड़-गिड़ाना,उसकी आहें सब बेकार चली जाती हैं ।
ठहरी जो वस्ल की तो हुई सुब्ह शाम से
बुत मेहरबाँ हुए तो ख़ुदा मेहरबाँ न था
दो ही दिन में ये सनम होश-रुबा होते हैं
कल के तर्शे हुए बुत आज ख़ुदा होते हैं
बुत कहते हैं क्या हाल है कुछ मुँह से तो बोलो
हम कहते हैं सुनता नहीं अल्लाह हमारी
बुत नज़र आएँगे माशूक़ों की कसरत होगी
आज बुत-ख़ाना में अल्लाह की क़ुदरत होगी
बुतों को तोड़ के ऐसा ख़ुदा बनाना क्या
बुतों की तरह जो हम-शक्ल आदमी का हो
आप करते जो एहतिराम-ए-बुताँ
बुत-कदे ख़ुद ख़ुदा ख़ुदा करते
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़र कहे बग़ैर
सनम-परस्ती करूँ तर्क क्यूँकर ऐ वाइ'ज़
बुतों का ज़िक्र ख़ुदा की किताब में देखा
बे-ख़ुदी में हम तो तेरा दर समझ कर झुक गए
अब ख़ुदा मालूम काबा था कि वो बुत-ख़ाना था
हम ऐसे सादा-दिलों की नियाज़-मंदी से
बुतों ने की हैं जहाँ में ख़ुदाइयाँ क्या क्या
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़
नहीं ये आदमी का काम वाइ'ज़
हमारे बुत तराशे हैं ख़ुदा ने
हो गए नाम-ए-बुताँ सुनते ही 'मोमिन' बे-क़रार
हम न कहते थे कि हज़रत पारसा कहने को हैं
जो कि सज्दा न करे बुत को मिरे मशरब में
आक़िबत उस की किसी तौर से महमूद नहीं
वो दिन गए कि 'दाग़' थी हर दम बुतों की याद
पढ़ते हैं पाँच वक़्त की अब तो नमाज़ हम
अपनी मर्ज़ी तो ये है बंदा-ए-बुत हो रहिए
आगे मर्ज़ी है ख़ुदा की सो ख़ुदा ही जाने
इलाही एक दिल किस किस को दूँ मैं
हज़ारों बुत हैं याँ हिन्दोस्तान है
त'अना-ज़न कुफ़्र पे होता है अबस ऐ ज़ाहिद
बुत-परस्ती है तिरे ज़ोहद-ए-रिया से बेहतर
वफ़ा जिस से की बेवफ़ा हो गया
जिसे बुत बनाया ख़ुदा हो गया