दरिया पर शेर
दरिया का इस्तेमाल क्लासिकी
शायरी में कम कम है और अगर है भी तो दरिया अपने सीधे और सामने के मानी में बरता गया है। अलबत्ता जदीद शायरों के यहाँ दरिया एक कसीर-उल-जिहात इस्तिआरे के तौर पर आया है। वो कभी ज़िंदगी में सफ़्फ़ाकी की अलामत के तौर पर इख़्तियार किया गया है कि जो उस के सामने आता है उसे बहा ले जाता और कभी उस की रवानी को ज़िंदगी की हरकत और इस की तवानाई के इस्तिआरे के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। दरिया पर हमारा ये शेरी इन्तिख़ाब आप को पसंद आएगा।
कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा
बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ
चाँद भी हैरान दरिया भी परेशानी में है
अक्स किस का है कि इतनी रौशनी पानी में है
अगर फ़ुर्सत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना
हर इक दरिया हज़ारों साल का अफ़्साना लिखता है
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है
तुम उस के पास हो जिस को तुम्हारी चाह न थी
कहाँ पे प्यास थी दरिया कहाँ बनाया गया
गिरते हैं समुंदर में बड़े शौक़ से दरिया
लेकिन किसी दरिया में समुंदर नहीं गिरता
मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ
मिरे हमराह दरिया जा रहा है
आज फिर मुझ से कहा दरिया ने
क्या इरादा है बहा ले जाऊँ
सफ़र में कोई किसी के लिए ठहरता नहीं
न मुड़ के देखा कभी साहिलों को दरिया ने
प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर
भागती जाती हैं लहरें ये तमाशा देख कर
हम को भी ख़ुश-नुमा नज़र आई है ज़िंदगी
जैसे सराब दूर से दरिया दिखाई दे
दरिया के तलातुम से तो बच सकती है कश्ती
कश्ती में तलातुम हो तो साहिल न मिलेगा
तिश्ना-लब ऐसा कि होंटों पे पड़े हैं छाले
मुतमइन ऐसा हूँ दरिया को भी हैरानी है
कटी हुई है ज़मीं कोह से समुंदर तक
मिला है घाव ये दरिया को रास्ता दे कर
दरिया को अपनी मौज की तुग़्यानियों से काम
कश्ती किसी की पार हो या दरमियाँ रहे
साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे
दरिया में हम जो उतरे तो दरिया उतर गया
कमाल-ए-तिश्नगी ही से बुझा लेते हैं प्यास अपनी
इसी तपते हुए सहरा को हम दरिया समझते हैं
बंद हो जाता है कूज़े में कभी दरिया भी
और कभी क़तरा समुंदर में बदल जाता है
दो दरिया भी जब आपस में मिलते हैं
दोनों अपनी अपनी प्यास बुझाते हैं
दरियाओं की नज़्र हुए
धीरे धीरे सब तैराक
दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो
अंदर से कभी देखो कैसा नज़र आता है
गाँव से गुज़रेगा और मिट्टी के घर ले जाएगा
एक दिन दरिया सभी दीवार ओ दर ले जाएगा
एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास
एक सहरा के सिवा अब दरमियाँ कोई नहीं
अजब नहीं कि ये दरिया नज़र का धोका हो
अजब नहीं कि कोई रास्ता निकल आए
अपने सिवा नहीं है कोई अपना आश्ना
दरिया की तरह आप हैं अपने कनार में
दरिया दिखाई देता है हर एक रेग-ज़ार
शायद कि इन दिनों मुझे शिद्दत की प्यास है
अगर रोते न हम तो देखते तुम
जहाँ में नाव को दरिया न होता
ग़ुरूर-ए-तिश्ना-दहानी तिरी बक़ा की क़सम
नदी हमारे लबों की तरफ़ उछलती रही
मेरे 'अनासिर ख़ाक न हों बस रंग बनें
और जंगल सहरा दरिया पर बरसे रंग
इस के ठहराओ से थम जाती है सब मौज-ए-हयात
या'नी दरिया में नहीं साँस में गहराई है