इंसान पर शेर
इंसान को सृष्टि की रचना
का केंद्र बिंदु कहा गया है । साहित्य और शाइरी में भी इंसान को अहमियत हासिल है । अब उस का तौर-तरीक़ा हो, व्यवहार हो, उस की कमज़ोरियाँ हों, अच्छाई हो बुराई हो उर्दू शाइरी में इंसान का पूरा अस्तित्व विषय के तौर पर मौजूद है । यहाँ प्रस्तुत शाइरी में इंसान और उस के अस्तित्व के कई हवाले पेश किए गए हैं । आप इस संकलन को पढ़िए और उर्दू शाइरी के रंग-ओ-रूप में इंसान की कहानी से लुत्फ़ हासिल कीजिए ।
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना
ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं
इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं
तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला
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उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा
फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना
मगर इस में लगती है मेहनत ज़ियादा
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आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
आदमी हूँ सो बहुत ख़्वाब हैं मेरे अंदर
साया है कम खजूर के ऊँचे दरख़्त का
उम्मीद बाँधिए न बड़े आदमी के साथ
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा
मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं
मैं आदमी हूँ मिरा ए'तिबार मत करना
ऐ आसमान तेरे ख़ुदा का नहीं है ख़ौफ़
डरते हैं ऐ ज़मीन तिरे आदमी से हम
गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया
सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया
आदमिय्यत और शय है इल्म है कुछ और शय
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा
जानवर आदमी फ़रिश्ता ख़ुदा
आदमी की हैं सैकड़ों क़िस्में
इस दौर में इंसान का चेहरा नहीं मिलता
कब से मैं नक़ाबों की तहें खोल रहा हूँ
भीड़ तन्हाइयों का मेला है
आदमी आदमी अकेला है
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया
फूल कर ले निबाह काँटों से
आदमी ही न आदमी से मिले
देवताओं का ख़ुदा से होगा काम
आदमी को आदमी दरकार है
जिस की अदा अदा पे हो इंसानियत को नाज़
मिल जाए काश ऐसा बशर ढूँडते हैं हम
आदमी के पास सब कुछ है मगर
एक तन्हा आदमिय्यत ही नहीं
फ़रिश्ता है तो तक़द्दुस तुझे मुबारक हो
हम आदमी हैं तो ऐब-ओ-हुनर भी रखते हैं
आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो
इक तवज्जोह चाहिए इंसाँ को इंसाँ की तरफ़
वो जंगलों में दरख़्तों पे कूदते फिरना
बुरा बहुत था मगर आज से तो बेहतर था
ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई
जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुज़री
आदमी क्या वो न समझे जो सुख़न की क़द्र को
नुत्क़ ने हैवाँ से मुश्त-ए-ख़ाक को इंसाँ किया
देवता बनने की हसरत में मुअल्लक़ हो गए
अब ज़रा नीचे उतरिए आदमी बन जाइए
कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ 'आतिश'
शैख़ हो या कि बरहमन हो पर इंसाँ होवे
न तो मैं हूर का मफ़्तूँ न परी का आशिक़
ख़ाक के पुतले का है ख़ाक का पुतला आशिक़
क्या तिरे शहर के इंसान हैं पत्थर की तरह
कोई नग़्मा कोई पायल कोई झंकार नहीं
बनाया ऐ 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर
मलक को देव को जिन को परी को हूर ओ ग़िल्माँ को
रूप रंग मिलता है ख़द्द-ओ-ख़ाल मिलते हैं
आदमी नहीं मिलता आदमी के पैकर में
बहुत हैं सज्दा-गाहें पर दर-ए-जानाँ नहीं मिलता
हज़ारों देवता हैं हर तरफ़ इंसाँ नहीं मिलता
इधर तेरी मशिय्यत है उधर हिकमत रसूलों की
इलाही आदमी के बाब में क्या हुक्म होता है
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
ऐ बुतो इतना सताओ न ख़ुदा-रा मुझ को
आदमी से आदमी की जब न हाजत हो रवा
क्यूँ ख़ुदा ही की करे इतनी न फिर याद आदमी
अहल-ए-म'अनी जुज़ न बूझेगा कोई इस रम्ज़ को
हम ने पाया है ख़ुदा को सूरत-ए-इंसाँ के बीच
इंसान की बुलंदी ओ पस्ती को देख कर
इंसाँ कहाँ खड़ा है हमें सोचना पड़ा
ऐ शैख़ आदमी के भी दर्जे हैं मुख़्तलिफ़
इंसान हैं ज़रूर मगर वाजिबी से आप
ग़ैब का ऐसा परिंदा है ज़मीं पर इंसाँ
आसमानों को जो शह-पर पे उठाए हुए है
आलम के मुरक़्क़े को किया सैर मैं लेकिन
इस में भी कोई सूरत-ए-इंसान न निकली