विसाल पर शेर
महबूब से विसाल की आरज़ू
तो आप सबने पाल रक्खी होगी लेकिन वो आरज़ू ही क्या जो पूरी हो जाए। शायरी में भी आप देखेंगे कि बेचारा आशिक़ उम्र-भर विसाल की एक नाकाम ख़्वाहिश में ही जीता रहता है। यहाँ हमने कुछ ऐसे अशआर जमा किए हैं जो हिज्र-ओ-विसाल की इस दिल-चस्प कहानी को सिलसिला-वार बयान करते हैं। इस कहानी में कुछ ऐसे मोड़ भी हैं जो आपको हैरान कर देंगे।
कुछ बदन के थे तक़ाज़े कुछ शरारत दिल की थी
आज लेकिन इश्क़ अपना जावेदाँ होने को था
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
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टैग्ज़ : फ़ेमस शायरीऔर 1 अन्य
कभी मौज-ए-ख़्वाब में खो गया कभी थक के रेत पे सो गया
यूँही उम्र सारी गुज़ार दी फ़क़त आरज़ू-ए-विसाल में
कल वस्ल में भी नींद न आई तमाम शब
एक एक बात पर थी लड़ाई तमाम शब
ठहरी जो वस्ल की तो हुई सुब्ह शाम से
बुत मेहरबाँ हुए तो ख़ुदा मेहरबाँ न था
वस्ल की शब थी और उजाले कर रक्खे थे
जिस्म ओ जाँ सब उस के हवाले कर रक्खे थे
देख कर तूल-ए-शब-ए-हिज्र दुआ करता हूँ
वस्ल के रोज़ से भी उम्र मिरी कम हो जाए
मिलने की ये कौन घड़ी थी
बाहर हिज्र की रात खड़ी थी
दरमियाँ जो जिस्म का पर्दा है कैसे होगा चाक
मौत किस तरकीब से हम को मिलाएगी न पूछ
उस की क़ुर्बत का नशा क्या चीज़ है
हाथ फिर जलते तवे पर रख दिया
हर इश्क़ के मंज़र में था इक हिज्र का मंज़र
इक वस्ल का मंज़र किसी मंज़र में नहीं था
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
तुम कहाँ वस्ल कहाँ वस्ल की उम्मीद कहाँ
दिल के बहकाने को इक बात बना रखी है
कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की 'हसरत'
बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना
भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिजक गई
उसे ख़बर थी कि हम विसाल और हिज्र इक साथ चाहते हैं
तो उस ने आधा उजाड़ रक्खा है और आधा बना दिया है
मिरा ग़ज़ाल कि वहशत थी जिस को साए से
लिपट गया मिरे सीने से आदमी की तरह
वो और वा'दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं
सच सच बता ये लफ़्ज़ उन्ही की ज़बाँ के हैं
ख़ाक से तब्दील हो कर आब हो जाते हैं हम
उस बदन-दरिया में जब ग़र्क़ाब हो जाते हैं हम
तिरी जबीं पे जो इक बार जगमगाया था
वो इक सितारा मेरे लम्हा-ए-विसाल में है
वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का
कुल्ली करो हुज़ूर हुआ है दहन ख़राब
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
मिरे बख़्त जागे मैं सोया किया
वस्ल का गुल न सही हिज्र का काँटा ही सही
कुछ न कुछ तो मिरी वहशत का सिला दे मुझ को
गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने
घड़ी पर रख दिया था हाथ मैं ने
दोस्त दिल रखने को करते हैं बहाने क्या क्या
रोज़ झूटी ख़बर-ए-वस्ल सुना जाते हैं
ओ वस्ल में मुँह छुपाने वाले
ये भी कोई वक़्त है हया का
अरमान वस्ल का मिरी नज़रों से ताड़ के
पहले ही से वो बैठ गए मुँह बिगाड़ के
ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
वस्ल की शब न सही हिज्र का हंगाम तो है
तर्ग़ीब-ए-गुनाह लहज़ा लहज़ा
अब रात जवान हो गई है
रख न आँसू से वस्ल की उम्मीद
खारे पानी से दाल गलती नहीं
कहना क़ासिद कि उस के जीने का
वादा-ए-वस्ल पर मदार है आज
वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'
जागना रात भर मुसीबत है
चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ
तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ
ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त
तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई
वो गले से लिपट के सोते हैं
आज-कल गर्मियाँ हैं जाड़ों में
उसे ख़बर है कि अंजाम-ए-वस्ल क्या होगा
वो क़ुर्बतों की तपिश फ़ासले में रखती है
सर्द रातों का तक़ाज़ा था बदन जल जाए
फिर वो इक आग जो सीने से लगाई मैं ने
जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना
वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था
वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी
तिरे बदन में हैं कितनी क़यामतें पिन्हाँ
बड़े शदीद अज़ाबों में क़ैद रहता हूँ
ओस से प्यास कहाँ बुझती है
मूसला-धार बरस मेरी जान
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं
वस्ल पर दिल ही किसी का न हो माइल जब तक
हिज्र की पूरी ज़रूरत नहीं की जा सकती
आप तो मुँह फेर कर कहते हैं आने के लिए
वस्ल का वादा ज़रा आँखें मिला कर कीजिए
वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
आज की बात को क्यूँ कल पे उठा रक्खा है
धड़कती क़ुर्बतों के ख़्वाब से जागे तो जाना
ज़रा से वस्ल ने कितना अकेला कर दिया है